उलझा बिखरा वसंत
आज मुग्धा ने इस कठिन निर्णय का हिम्मत से सामना किया। कमजोर बनकर वह सुशांत को मजबूर नहीं करना चाहती थी, पर सुशांत के निर्णय को सहजता से स्वीकार करके यह जताना भी चाहती थी कि उसका निर्णय अमानवीय है। आज मुग्धा की आंखों में आंसू थे, चेहरे पर जबरन मुस्कान थी और वह कह रही थी, ज़हर का हिसाब बड़ा गड़बड़ है सखी, मरने के लिए जरा-सा और जीने के लिए कितना पीना पड़ता है।
प्रभा पारीक
मकर संक्रांति अब जा चुकी है, पर छतों पर उलझे-उलझे धागों के गुच्छे, भटकती हुई चरखियां, तारों, पेड़ों की टहनियों पर लटकी और अटकी पतंगें अब भी अपनी-अपनी तरह से अपनी कहानी बयां कर रही हैं। मुग्धा अभी कोर्ट परिसर से बाहर निकली है, साथ में है उसकी अंतरंग सहेली और माता-पिता। सुशांत के साथ तलाक की कार्यवाही पूरी होने पर भी मुग्धा ने अपने को सहज बनाये रखा और माता-पिता से घर जाने को कहा। अपनी सहेली के साथ मुग्धा सबसे पहले मंदिर गई। भगवान के हर निर्णय पर मुग्धा की अटूट आस्था थी। आज भी मुग्धा ने कोई सवाल नहीं किया, बस इतना कहा...
‘आगे मेरे लिए क्या सोचा है प्रभु, जल्दी ही बता देना अब और सहने की हिम्मत नहीं है, हिम्मत की उम्मीद भी तुमसे ही है।’
आज मुग्धा की हालत देखकर समझ आया कि क्रोध आने पर चिल्लाने के लिए ताकत नहीं चाहिए मगर क्रोध आने पर चुप रहने के लिए बहुत ताकत चाहिए। मुग्धा तो सहज थी पर साथ आई शिवानी की आंखों में झर-झर आंसू बहने लगे थे।
शिवानी के साथ कॉफी पीने के लिए एक स्थान पर बैठते हुए मुग्धा को बहुत कुछ याद आने लगा। चारों ओर के वातावरण पर अब उसका ध्यान गया था। इतने दिनों की उलझनों में मन को चैन ही कहां मिला था कि वह प्रकृति के सौंदर्य को निहार पाती। उसने महसूस किया कि प्रकृति अपने पूरे श्रृंगार में है। मंद पवन, चारों तरफ खिले फूल और वासंती सौंदर्य, मस्ती का माहौल था, जिसे उसने महसूस किया और पूछा, ‘क्या वसंत आ गया है?’
ऐसे कठिन समय में पूछे गए सवाल का जवाब देने से शिवानी कतरा रही थी, उसने चुप रहना बेहतर समझा, लेकिन बहुत कुरेदने पर उसे बताना ही पड़ा कि आज वसंत पंचमी है। ‘हां, आज वसंत पंचमी है।’ सच ही है, ऐसे ही दिनों में तो कामदेव का शची ही के संग वियोग हुआ था। कुछ देर चुप रहकर मुग्धा ने गाड़ी की चाबी उठाई और शिवानी को चलने का इशारा किया।
मुग्धा कहां जा रही है, शिवानी समझ ही नहीं पाई, पर गाड़ी में बैठते ही मुग्धा का मूड बदल गया था। उसने कहना आरम्भ किया, ‘तुम्हें पता है करीब-करीब हर वसंत पंचमी को हमारे परिवार में किसी की सगाई, शादी, मुंडन आदि जरूर होती रही है। सुशांत से भी तो मेरा पहली बार मिलना वसंत पंचमी को ही हुआ था। उस दिन बिड़ला ऑडिटोरियम में मेरा डांस परफॉर्मेंस था। मेरी प्रस्तुति बहुत सराहनीय रही थी। सुशांत अपनी बहन को लेकर आया था। दक्षिण भारतीय पोशाक में सुशांत बहुत सुंदर लग रहा था। औपचारिक बात हुई। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बधाई देने के बाद उसने मेरा फोन नम्बर लिया और उसके बाद तो हमारी फोन पर बातों का सिलसिला चल निकला। शिवानी को यह सब मालूम था पर वह आज मुग्धा को टोकना नहीं चाहती थी। उसने आगे कहना जारी रखा, बम्बई में जब मैं अपने डांस के सिलसिले में गई तब सुशांत का आग्रह था कि मैं उसके घर पर ही ठहरूं। साथ के लोगों के कारण मैं होटल में रही पर एक पूरा दिन उनके साथ रही और तभी यह निर्णय ले लिया था कि अगली बार सुशांत के साथ रहेगी। पढ़ाई के बाद उसे पहली नौकरी मिली थी मुम्बई में, जिसका मिलना हम दोनों के लिए जैसे मनचाही मुराद मिल गई। महिला सशक्तीकरण के लिए कार्यरत करने वाली मुग्धा ने सुशांत से कभी किसी बात का फेवर नहीं मांगा, जो कुछ किया अपने दम पर करती रही और सुशांत उसके इस आत्मविश्वास पर कायल होता रहा।
पूरे एक वर्ष के बाद वसंत पंचमी के दिन उसे एक बड़े कार्यक्रम में अपनी प्रस्तुति देनी थी। जब आमंत्रण पत्र सुशांत को मिला, तो उसका सीना गर्व से तना हुआ था। वैसे भी, ‘किसी को स्नेह देना सबसे बड़ा उपहार है, और किसी से स्नेह पाना सबसे बड़ा सम्मान है।’ तारीफ करने वाले तो आपको पहचानते होंगे, पर फिक्र करने वाले आपको और आपके गुण-अवगुणों को भी पहचानते हैं। अपने दोस्तों के साथ आए सुशांत ने सबको उससे मिलवाया। उस वक्त सुशांत का सीना मुझे लेकर गर्व से तना हुआ था। मैं तब वक्त पर बलिहारी जा रही थी, वही वक्त दिखाई नहीं देता, पर बहुत कुछ दिखा जाता है।
कार्यक्रम के बाद उस दिन कॉफी टेबल पर यह पता चला कि सुशांत का मूल गांव चेन्नई के पास है, जहां उसकी माताजी अकेली रहती हैं और वह यहां एक अलग फ्लैट में रहता है। उसकी बहन का विवाह भी इसी शहर में हुआ है, इसलिये बहन का परिवार भी नजदीक ही रहता था। कुछ दिनों बाद, सुशांत ने अपनी बहन के परिवार से भी मिलवाया। बहन भी कलाकार है, इसलिये वह कला की कद्र करना जानती है। अपने-अपने विषय में बातें होती रहीं। सुशांत की बहन के घर से निकल कर जब वह अपने घर जाने के लिए निकली, तब उसे अचरज हो रहा था। उसके जीवन में इतनी जल्दी-जल्दी सब हो रहा था।
मुग्धा कहती रही, विवाह का प्रस्ताव भी उसी की तरफ से आया था और आज अलग होने की इच्छा भी उसी की थी। सोचती हूं, सुशांत जैसा संवेदनशील व्यक्ति एक महिला को इस तरह, इस परिस्थिति में अकेला छोड़कर कैसे जा सकता है। आज समझ आ रहा था, हमारे अपने हमें कभी दर्द नहीं देते, दर्द तो हमें वे देते हैं जिन्हें हम अपना समझने की भूल कर बैठते हैं। जो अपनी पुत्री का पिता नहीं हो सकता, वह मुझे पत्नी होने का सुख कैसे दे सकता है? मुग्धा अभी अपनी छोटी-सी बिटिया के लिए कुछ चिंतित नजर आ रही थी। महिला स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठाने वाली मुग्ध, अपने सफल कहे जाने वाले जीवन और अपने प्यार से भरपूर, सराबोर थी। फिर आज इस तरह कमजोर क्यों।
शिवानी महसूस कर रही थी कि महिलाएं, चाहे किसी भी वर्ग की हों, नकारे जाने पर सदा एक-सी प्रतिक्रिया देती हैं। विवाह के एक वर्ष बाद ही उसे गर्भाशय के रोग के बारे में पता चल गया था, जिसका इलाज सुशांत ने बहुत अच्छी तरह करवाया। उसने बहुत देखभाल की, बच्ची को संभाला। संघर्षपूर्ण चार सालों के बाद अचानक जब सब कुछ ठीक होने लगा, तो डाक्टर को दिखाने गए। तब डाक्टर ने कहा था, ‘आपको अपने खाने-पीने का विशेष ध्यान रखना है। कभी भी यह रोग फिर से अपना सिर उठा सकता है।’ और सुशांत ने स्वयं आगे बढ़कर उसकी देखभाल का विश्वास दिलाया था। लेकिन उसी सुशांत ने मुग्धा को इस बार वसंत पंचमी के कुछ महीनों पहले कहा था, ‘मैं अब अकेला रहना चाहता हूं।’ मुग्धा को कुछ दिन पहले से ही यह अहसास होने लगा था। मुग्धा तब सोच रही थी कि, ‘मैं दुखों को अपने पास आने से नहीं रोक सकती, लेकिन अपने आप को उन दुखों की घबराहट से तो बचा ही सकती हूं।’
सुशांत को जवाब में मुग्धा ने दृढ़ता से कहा था, ‘पर मैं अकेली रहना नहीं चाहती।’ नीचे गर्दन झुका कर सुशांत बोला, ‘क्यों? तुम तो एक मजबूत व्यक्तित्व हो, समाज में महिलाओं को अपने दम पर जीना सिखाती आई हो, आदर्श हो, कमजोर महिलाओं के लिए। तुम्हें अकेलापन कैसा?’ मुग्धा समझ गई थी कि जब सवालों के जवाब मिलने बंद हो जाएं, तो समझ लो कि एक नया मोड़ आ चुका है। रिश्तों में विश्वास मौजूद हो, तो मौन भी समझ में आ जाता है, और यदि विश्वास नहीं हो, तो शब्दों से भी गलतफहमी हो जाती है
सुशांत उसका मजाक बना रहा था या प्रशंसा कर रहा था, मुग्धा को समझ नहीं आया और उस दिन बात अधूरी ही रह गई। समझ तो आ गया था मुग्धा को कि कुछ चल रहा है सुशांत के दिमाग में, जो भयानक था, पर वह पूरा समझ नहीं पाई थी। पिछले महीने, सुशांत ने अचानक उसे तलाक के पेपर्स पकड़ाए। मुग्धा देखती ही रह गई। सारा पैसा उसने बेटी के नाम कर दिया, बिना मांगे, और उसने मासिक रुपये देने की व्यवस्था भी कर दी थी। अपने पास ही बिल्डिंग में एक घर भी बुक करा दिया था। मुझे किसी प्रकार का कष्ट उसे बर्दाश्त नहीं था, पर मेरा साथ भी बर्दाश्त नहीं था। शिवानी, रिश्ते पैसों के मोहताज नहीं होते, क्योंकि कुछ रिश्ते मुनाफा नहीं देते, पर जीवन को अमीर जरूर बना देते हैं। मुझे सुशांत के साथ ने धनवान बना दिया था। मेरे जीवन में कुछ तो ऐसा था, जिस पर मुझे नाज था। पर बस, कल जितना भरोसा था, उतना आज नहीं था।
शिवानी, पति-पत्नी का रिश्ता वो नहीं होता जो ग़म और खुशी में साथ दे, रिश्ता तो वो है जो हर पल अपनेपन का अहसास दे। वह अहसास अब खत्म होता जा रहा था। एक प्रस्ताव मैंने दिया था, ‘तलाक रहने दो, हम अलग-अलग रहकर देख लेते हैं।’ सुशांत ने दृढ़ता से कहा था, ‘नहीं, तलाक के बाद तो अलग ही रहना है।’ क्या कहती मुग्धा, दुनियाभर की दुखियारियों के लिए आवाज उठाती मुग्धा, अपने लिए किसी पुरुष के सामने कैसे गिड़गिड़ाकर भीख मांगती? आदतन निर्णय से ग्रस्त रहने वाला व्यक्ति, दयनीय होता है। समझ आ गया था मुग्धा को, अब सुशांत अपने निर्णय से पीछे नहीं हटेंगे। फिर कल चाहे पछताना पड़े। तलाक हो जाने तक का समय जैसे किसी तरह काटना ही पड़ा—ज़रूरत से अधिक ध्यान रखना, समय पर घर आ जाना, बेटी के साथ समय बिताना। कुल मिलाकर समझ आ रहा था कि सुशांत के मन में जो संघर्ष चल रहा था, उससे वह किस तरह जूझ रहे हैं। मुग्धा ने कहा, ‘जानती हो, अपनों के शब्द तो यदाकदा चुभते ही रहते हैं, पर जब मौन चुभने लगे किसी का, तो हमें संभल जाना चाहिए।’
आज मुग्धा ने इस कठिन निर्णय का हिम्मत से सामना किया। कमजोर बनकर वह सुशांत को मजबूर नहीं करना चाहती थी, पर सुशांत के निर्णय को सहजता से स्वीकार करके यह जताना भी चाहती थी कि उसका निर्णय अमानवीय है। आज मुग्धा की आंखों में आंसू थे, चेहरे पर जबरन मुस्कान थी और वह कह रही थी, ‘ज़हर का हिसाब बड़ा गड़बड़ है सखी, मरने के लिए जरा-सा और जीने के लिए कितना पीना पड़ता है। आप कितनी ही चिंता क्यों न कर लें, चिंता से एक छोटी-सी समस्या भी हल नहीं होती।’
मुग्धा ने घर जाने और माता-पिता का सामना करने के लिए स्वयं को जैसे तैयार कर लिया था। पूरे आत्मविश्वास से उसने मुझे चलने के लिए कहा था। अचानक मुग्धा ने अपना फोन उठाया और सुशांत को फोन करके तलाक की बधाई दी और पूरे आदर से कहा कि यदि उसे जीवन में कभी भी उसकी आवश्यकता हो, तो वह नि:संकोच उससे मदद मांग सकता है। फोन रखकर उसने उसका नंबर डिलीट कर दिया। गाड़ी में बैठे-बैठे ही मुग्धा ने महिला कल्याण के लिए वर्षों से इंतजार कर रहे डायरेक्टर के पद के लिए अपनी स्वीकृति लिख दी थी। विद्या की देवी शारदे की उस पर विशेष कृपा थी। रास्ते में अपनी लाड़ली के लिए खिलौने खरीदते हुए घर पहुंची। माता-पिता को यही दर्शाया जैसे कुछ हुआ ही नहीं। सामान्य बनी रही और आगे के सभी निर्णय विवेकपूर्ण लेने की मन्नत मांगती रही। प्रश्न यह था कि समाज की कैसी सोच है? स्वस्थ और समर्पित पत्नी की चाह है? क्या मुग्धा के स्थान पर सुशांत इस दौर से गुजरा होता तो भी मुग्धा का निर्णय यही होता? उसे समझ आने लगा था कि सुख-संतोष से जीना ही जीवन है। जहां दूसरों को समझाना मुश्किल हो जाए, वहां खुद को ही समझ लेना बेहतर होता है। मुग्धा समझ गई थी कि वह उसकी बीमारी से घबरा गया था। आगे सामना करने की हिम्मत वह खो चुका है। अपनी बीमारी के लिए वह जिम्मेदार नहीं था। इसलिये खुद का माइनस प्वाइंट मालूम होना भी एक प्लस प्वाइंट होता है। दृढ़ व्यक्तित्व की धनी मुग्धा को अपनी कमियां और गुण दोनों मालूम थे। पर जिंदगी में कभी अपनों से हारकर देखें, जीत ही होगी वह तुम्हारी। पढ़ी-लिखी महिला को इस तरह किसी से प्रेम की भीख क्यों? वैसे भी प्रेम, भीख में लेने और देने की चीज नहीं है। मां शारदे वसंत पंचमी के दिन अपने भक्तों को वरदान देने के लिए सदा तत्पर हैं।