उर्दू और हिंदी में अलगाव और साझेपन के हाशिये
हिंदी और उर्दू के बीच का विभाजन समय के साथ क्षीण होता जा रहा है, जहां भाषा की सांस्कृतिक जड़ें साझा हैं। वैश्वीकरण और मीडिया के प्रभाव से, दोनों भाषाओं का अंतर अब कम होता दिखाई दे रहा है। यह बदलाव न केवल सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में, बल्कि साहित्य और कला के क्षेत्र में भी साफ तौर पर दिख रहा है, जहां एक साझा भाषा की ओर रुझान बढ़ रहा है।
विनोद शाही
खालिद अमीर खान गंडापुर की ‘एक्सप्रेस ट्रिब्यून’, पाकिस्तान में एक रपट प्रकाशित हुई है। उसमें यह चिंता जाहिर की गई है कि ‘क्या हिंदी पाकिस्तान की राष्ट्र-भाषा होती जा रही है?’
‘पाकिस्तान टुडे’ में इस पर मोहर लगाने वाली कुछ और ‘खबर कथाएं’ भी प्रकाशित हुई हैं, जिनमें यह कहा गया है कि पाकिस्तान में लोग, उर्दू की बनिस्बत ‘हिंदी’ का इस्तेमाल, बोलचाल की भाषा के तौर पर ज्यादा करते हैं। इन रपटों में इसके कारण बताये गये हैं— पाकिस्तान में बच्चों द्वारा देखे जाने वाले हिंदी के कार्टून चैनल तथा हिंदी या हिंदुस्तानी की फिल्में। इन्हें ‘पाबंदी’ लगाकर ‘देखे जाने से रोकना’ अब मुमकिन नहीं रह गया है।
यहां गौरतलब बात है कि पाकिस्तान की कुल जनसंख्या का केवल आठ प्रतिशत हिस्सा ही ऐसा है, जो उर्दू को अपनी ‘पहली’ या ‘बुनियादी’ भाषा के रूप में इस्तेमाल करता है। इस लिहाज से देखा जाए तो उर्दू का इस्तेमाल प्राथमिक तौर पर करने वालों की तादाद, भारत में पाकिस्तान के मुकाबले कहीं ज्यादा है।
दूसरी बात यह भी रेखांकित करने लायक है कि भारत में जो लोग उर्दू को अपनी प्राथमिक भाषा के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, वे भी इसे ‘देवनागरी लिपि’ की मार्फत ही पढ़ते-लिखते हैं।
यही स्थिति पाकिस्तान की भी है। वहां बहुसंख्यक लोग पंजाबी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। वे इसे शाहरूखी लिपि में दर्ज करते हैं। परन्तु इसके बावजूद अब वहां उर्दू को ‘उर्दू’ बनाने वाली मूल अरबी-फारसी-तुर्की भाषाओं को पढ़ने और समझने वालों की संख्या बेहद कम रह गई है। सामान्य-जन में शायद ही कोई ऐसा हो जो अरबी-फारसी का जानकार हो। मौजूदा दौर में वैश्विक संदर्भों के बरअकस हमें हिंदी की स्थिति का आकलन ठीक उस शक्ल में करना होगा, जो उसकी ‘जमीनी हकीकत’ की तरह प्रस्तुत हो रही है। उसे समझने के लिये उसके इतिहास को भी देखना होगा, ताकि हम अनुमान लगा सकें कि विकास किस दिशा में हो रहा है?
जैसे-जैसे वक्त बीतता जाता है, हिंदी और उर्दू के बीच का ‘बनावटी विभाजन’ अपनी अर्थवत्ता को खोता दिखाई देने लगा है। हम अपने इस समय में गहरा रही सांप्रदायिक मानसिकता, कट्टरपंथी प्रवृत्तियों और आतंकवाद की ओर रुख करते मूलवाद से उत्तरोत्तर और-और चिंतित तो होते ही रहते हैं। ऐसे में हमें भाषा के तल पर प्रकट हो रही सरहदों को मिटा देने वाली जमीनी हकीकत की ओर भी थोड़ा ध्यान देने की ज़रूरत है। इस बदले परिदृश्य का विश्लेषण करेंगे तो हम पाएंगे कि कट्टरताओं और विभाजनवादी प्रवृत्तियों के अमानवीय रूपों के स्रोत, ‘सत्ता के आरोपित समीकरण ही अधिक हैं। जबकि लोग बदल रहे हैं। वे हमारे इस पूरे दक्षिण एशियायी परिदृश्य में जमीनी तौर पर किसी ‘साझी भाषा’ की ओर रुख कर रहे हैं। ऐसी भाषा की ओर जो इस पूरे ‘महा-प्रदेश’ की साझी संस्कृति की भाषा है।
कभी इसे ‘हिंदुस्तानी’ या ‘रेख्ता’ कहा जाता था। हिंदी और उर्दू को उसी के भीतर से निकली दो उप-भाषाओं या एक ही भाषा के दो ‘भिन्न रजिस्टरों’ के रूप में ही अमूमन देखा जाता रहा है। पर भाषायी विकास की जमीनी हकीकत उस स्थिति से एक कदम आगे निकल आई है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है, हिंदी या हिंदुस्तानी के स्रोतमूलक भाषायी रजिस्टर, अब अपनी व्यापक प्रचलन-मूलक प्रासंगिकता को खोने लगे हैं। ये स्रोत, यानी हिंदी का संस्कृत की ओर उन्मुख होना और उर्दू का अरबी, फारसी व तुर्की की ओर रुख करना - ये दोनों प्रेरक होने की स्थिति में नहीं रह गए हैं।
हिंदी और उर्दू को दो अलग भाषाओं जैसा रूप देने वाले ये स्रोतमूलक रजिस्टर, अब दो कारणों से अपने ‘विभाजक’ या ‘अलहदगी पसंद’ रूप को खोते जा रहे हैं। एक, यह कि इन्हें प्रासंगिक बनाने वाला ‘उग्र राष्ट्रवाद’, अब शक्ल बदल रहा है। वह अब ‘दो पड़ोसी देशों की अलग पहचान या अस्मिता को बनाये रखने’ के सवाल से ज्यादा अहमियत नहीं रखता है। पुनरुत्थानवादी हिंदू-महासभा और मुस्लिम लीग की विरासत, ‘उग्र राष्ट्रवादी मानसिकता’ को बनाए बचाए रखने से ज्यादा, अब भारत और पाकिस्तान के विकास और प्रगति की संभावनाओं के सवालों की ओर अधिक रुख कर रही है। अब तो बस, अलग होने की वजह से, एक-दूसरे को घूरते हुए, दो मुल्क हैं, जो आमने-सामने दिखाई देते हैं। भाषा के तल पर भारत की फिक्र यह है कि हिंदी को विश्व-भाषा के रूप में और अधिक कैसे विकसित किया जा सकता है।
और उधर पाकिस्तान को ज्यादा खतरा इस बात का सताता है कि ‘अलहदगी’ को बनाए रखने वाली उर्दू के स्वरूप की हिफाजत कैसे की जाए? उसे अपने स्त्रोतों से दूर हो जाने से कैसे रोका जाए? ताकि उसके हिंदी में विलय होने की संभावना छूत की बीमारी की तरह फैलने ना लगे। अतः उर्दू-पक्षीय उग्रता अब, अलहदगी की बजाय, ‘अलग पहचान या अस्मिता’ को विकसित करने की, फिक्र ज्यादा करने लगी है। परन्तु भाषा, एक तल पर विश्व की संस्कृति का एक अंग भी होती है। इस वजह से हुआ यह है कि वैश्वीकरण की ओर उन्मुख मीडियाकरण ने भौगोलिक सरहदों को गिराना शुरू कर दिया है। ऐसे हालात में ‘उर्दू’ के लिये उर्दू की तरह बने-बचे रहने का एक बड़ा संकट पैदा हो गया है।
दूसरी बात ज्यादा बुनियादी है। उसकी जड़ें हिंदी के इतिहास में हैं। उस ओर जाते ही, भाषागत अलहदगी की धारणा के पैरों तले की जमीन खिसकने लगती है।
यह हम सभी जानते हैं कि रेख्ता या हिंदुस्तानी का, अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू के तौर पर अधिक इस्तेमाल 1790 के बाद के कालखण्ड से ताल्लुक रखता है। इससे यह लगने लगा कि उर्दू, हिंदुस्तानी या हिंदी से कोई अलग जुबान है। इसके लिये दिल्ली-आगरा की मुगल फौजियों छावनियां अधिक जिम्मेवार थीं। वे अपने बिखर रहे शासन को बचाने का यह ‘अभिजात-वर्गीय तरीका’ अपना रही थीं। अरबी-फारसी-तुर्की बोलने वाले सामंतों-नवाबों की तहजीब को बचाये-बनाये रखने के लिए भाषा के एक खास रूप को गढ़ा गया। वह दरपेश बिखराव से उबरने के लिये एक ‘सांस्कृतिक विकल्प’ खोजने जैसी बात थी। ‘उर्दू’ शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी वही था - छावनी या दुर्ग की भाषा।
तो, यह जो ‘उर्दू जुबान’ है, वह उस नवाबी मानसिकता की पर्दादारी है, जो 18वीं-19 वीं शती में हिंदी से एक अलग जुबान की तरह होने-दिखने की कोशिश कर रही थी। वह ‘मुगल साम्राज्य के बिखराव के हालात के भीतर से उपजती है। यानी, उर्दू, हिंदुस्तानी के भीतर से उपजने वाला, उसी का एक ‘थोड़ा अलग’ भाषा-रजिस्टर भर है। इसका ताल्लुक एक बिखराव कालीन या पतनशील सत्ता-विमर्श से है। यह इस्लाम-केन्द्रित मुगलिया सत्ता-विमर्श से जुड़ी, बिखराव काल में जन्म लेने वाली जुबान है। यह ‘उर्दू’, दूसरी ओर अंग्रेजी साम्राज्यवाद की चुनौती से पैदा होने वाली असुरक्षा-ग्रंथि से भी बंधी नजर आती है। हालांकि भाषा के वैज्ञानिक विकास के नजरिये से यह गैर-जरूरी एवं भाषा-परिदृश्य पर ‘आरोपित’ वस्तु प्रतीत होती है। वैज्ञानिक विकास की कसौटी पर हिंदी, स्वयं इससे पूर्व आठवीं-दसवीं शती के बीच अपभ्रंशों के अरबी-फारसी के साथ सम्मिश्रणों से उपजी थी। सिंध प्रदेश इसके जन्म-स्थान की तरह था। इसलिए यह ‘सिंधवी, ‘हिंदवी’, ‘हिंदी’ या हिंदुस्तानी कहलाई।
अरबी, फारसी, तुर्की की शब्दावली का असर इस हिंदी में आठवीं-दसवीं शती से ही दिखाई देना आरंभ हो जाता है। मूलतः यह भाषा उपजी तो ‘शौरसेनी’,’पैशाची’ और ‘मगही’ से थी, परन्तु उस संक्रमण काल में कभी यह प्रश्न नुमाया नहीं होता कि इस मिली-जुली भाषा में संस्कृत का वर्चस्व होगा, कि अरबी-फारसी का।
तो जो लोग मध्य एशिया से आकर भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य का हिस्सा हो गए उन्हें हिंदी को हिंदी बनाने का वास्तविक श्रेय दिया जा सकता है। इस कसौटी पर खरे उतरने वालों में बारहवीं शती के महत्वपूर्ण कवि का नाम है- फरीदुद्दीन शकरगंज पाक पटन। हालांकि उनकी भाषा पैशाची से अधिक प्रभावित थी। इसलिए वह पंजाबी के निकट अधिक लगती है। लेकिन यह भी गौर-तलब है कि उस दौर तक पंजाबी और हिंदी में कोई विशेष फर्क दिखाई नहीं देता। इसलिए ग्रियर्सन को आधुनिक काल में भी यही लगता रहा कि पंजाबी हिंदी की एक उप-भाषा ही है।
फिर तेरहवीं शती में आते हैं अमीर खुसरो। हिंदी को उसके आधुनिक खड़ी बोली वाले रूप तक विकसित करने का श्रेय अगर किसी कवि को दिया जा सकता है, तो वह अमीर खुसरो ही है।
तो यहां अब सवाल यह पैदा होता है कि यदि हिंदी को हिंदी के रूप में गढ़ने का बुनियादी काम मुसलमान सूफियों द्वारा किया गया था, तो 18वीं-19वीं शती में उसी हिंदी के भीतर उर्दू के रूप में एक अलग उपभाषा खड़ी करने की ज़रूरत ही क्यों आन पड़ी थी? हमारे इस सवाल का जो दूसरा सिरा है, वह यह है कि यदि भारत की अखंडता और सांस्कृतिक समन्वयन के पर्याय के तौर पर हिंदी, हिंदोस्तानी के रूप में अपना काम बखूबी कर रही थी, तो उस फोर्ट विलियम कॉलेज के आचार्यों को ऐसी हिंदी की ज़रूरत क्या आ गई थी, जो संस्कृत की ओर उन्मुख होकर ऐसी भाषा प्रतीत हो, जो उर्दू से अलग दिखाई दे सके? इस विवेचन से स्पष्ट हो सकता है कि 19वीं शती में हिंदी और उर्दू के तौर पर ‘हिंदी’ का जो कृत्रिम अंतर्विभाजन हुआ, वह चूंकि ‘अवैज्ञानिक’ था, इसलिये हमारे परिदृश्य में अब इन के बीच की सरहदें खुद ब खुद गिरती दिखाई देने लग रही हैं। जैसा कि ऊपर उद्धृत पाकिस्तान की खबर कथाओं से स्पष्ट है।
यह एक शुभ संकेत है। क्योंकि जैसे-जैसे हमारे इस पूरे दक्षिण एशियायी क्षेत्र में एक ऐसी हिंदी का चलन और अधिक जन-स्वीकृति पाता जाएगा, वैसे-वैसे हम इस से कुछ और बेहतर परिणाम निकलते देख सकेंगे।
संस्कृत व अरबी-फारसी की शब्दावली की बहुलता, भाषा में एक ‘रूपवादी’ रुझान है। वह भाषा के चेहरे-मोहरे या कहें कि उसकी ‘सतह’ से अधिक बावस्तगी रखता है। जैसे-जैसे भाषा में यह रूपवादी जकड़बंदी ढीली पड़ती है, वैसे-वैसे हम उसकी ‘अंतर्वस्तु की मुक्ति’ के शुभ संकेत पाने की संभावनाओं से युक्त होते जाते हैं।
साहित्य के क्षेत्र में कथा-परिदृश्य, हिंदी-उर्दू की किसी ‘साझी दुनिया की कहानी’ कहता दिखाई देता है। फिल्मों में हमें उसी का और अधिक जन-प्रचलित रूप सामने आया है। वे जैसे पूरे दक्षिण-एशियायी सांस्कृतिक पर्यावरण की साझी जुबान बोलती प्रतीत होती हैं। भाषा के मामले में कथा की यह भूमिका ‘प्रगतिशील मालूम पड़ती हैं। कथा ने भाषा के तल पर हिंदी और उर्दू के बनावटी विभाजन का अतिक्रमण, बीसवीं सदी में, अंग्रेज काल में ही करना आरंभ कर दिया था। हमारे सभी बड़े कथाकार प्रेमचंद से लेकर उपेन्द्रनाथ अश्क, रहबर और राजेन्द्र सिंह बेदी तक कभी-कभार दोनों भाषाओं में एक ही कहानी या उपन्यास को प्रकाशित करवाते दिखाई देने लगे थे। उसमें ज्यादा दिक्कत थी भी नहीं। मंटो जैसे लेखक ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे, जो हिंदी और उर्दू-दोनों की दुनियाओं में आसानी से खप जाती थी।
आज़ादी के बाद वह चलन समाप्त हो गया कि कथाकार हिंदी और उर्दू दोनों में, भाषा के थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ, मौजूद नजर आए। शुरुआती तौर पर शायद थोड़ा-बहुत ‘मूलवादी रुझान’ भारत और पाकिस्तान में दिखाई दिया, परन्तु जल्द ही उस ‘शुद्धतावाद’ की जरूरत, कम-से-कम कथा के लिए पूरी तरह समाप्त हो गई। आज आप भारत, पाकिस्तान और बांग्ला देश के कथाकारों की कृतियां उठा लीजिये, देशों की भिन्नता के बावजूद, ये तीनों देश, भाषा के मामले में, लगातार करीब आते हुए दिखाई दे जाएंगे। इस्मत चुगताई, तस्लीमा नसरीन, इंतजार हुसैन, भीष्म साहनी, राही मासूम रजा या कृष्णा सोबती की कृतियां किसी देश-विशेष या भाषा-विशेष की कृतियां हों- इस बात से सहमत होना उत्तरोत्तर कठिन होता जाता है।
अब हम इसी बात के दूसरे पहलू पर आते हैं। उसका ताल्लुक है भविष्य में अग्र-विकास की दिशाओं के संभावित रूपों की पहचान के साथ। कथा ने एक रास्ता दिखाया है। एक सांझी जुबान में, रचनाशील होने की संभावना का। वह देशों की भौगोलिक सरहदों को निरस्त करने का काम करती हैं। सांस्कृतिक तल पर इस तथ्य की गहराई में जाना अर्थ-पूर्ण होगा। इससे हम कथा की ‘अर्थ-मीमांसा’ से जुड़े एक गौरतलब सवाल तक पहुंच जायेंगे। वह यह कि कथा, समाजेतिहास की वैकल्पिक विकास-दिशाओं की खोज का रचनात्मक धरातल पर रूपायन होती है। कथा की मार्फत गोया किसी भी मुल्क के समाज का इतिहास, ‘नयी परिणतियां’ पाता हुआ ‘मुक्त’ हुआ करता है।
कथा, इतिहास का रचनात्मक विकल्प होती है। उसे मुक्त कर सकने की सामर्थ्य, उसे अन्य विधाओं की तुलना में ज्यादा प्रगतिशील बनाती है। इसीलिए आधुनिक समाजों में जहां-जहां सामाजिक रूपांतर की ज़रूरतें प्रगति-धर्मी होने का प्रयास करती नजर आती हैं, कथा की रचनाशीलता में भी एक अभूतपूर्व उछाल दिखाई देने लगता है। दक्षेस मुल्कों में कम-से-कम यही हो रहा है। कथा के तल पर भारत-पाक-बांग्ला देश पारंपरिक विभाजन-मूलक सांप्रदायिकता से धीरे-धीरे थोड़ा बहुत उबरते जाते हैं। उसी अनुपात में कथा अधिकाधिक ‘बेबाक’ होकर, लोगों की ‘साझी जुबान’ में अपनी ‘अलग परिणतियां’ खोजने निकल पड़ी लगती हैं। बेशक राष्ट्रवादी रुझान भी बीच-बीच में, उसे सांप्रदायिकता की ओर भी, दोबारा धकेलने की कोशिश करते रहते हैं
साझेपन की मानसिकता के विस्तार के लिए समर्पित कुछ फिल्मों के नाम यहां लिए जा सकते हैं। इस संदर्भ में ‘खुदा के लिए’ को देख लीजिये। पाकिस्तान का मुल्लावाद-प्रतिरोधी अंतर्मन, वहां अभिव्यक्ति के लिए छटपटाता नजर आ जाएगा। उसी कड़ी में हमारे यहां आई कुछ फिल्मों के नाम हैं- ‘ओ माई गॉड’ या ‘पी के’। इन कथाकारों व फिल्मों के नाम यहां एक खास अर्थ में लिए गए हैं। यहां हिंदी और उर्दू के शुद्धतावादी संस्कृतकरण या फारसीकरण से बाहर आने के लिए, ‘रूपवादी’ संरचनाओं की बजाय, ‘अंतर्वस्तु’ के विस्फोटक अभिव्यक्ति-रूप नुमाया हो गए हैं।
अब अगली बारी ‘विमर्श’ की है। अब रास्ता खुल गया है। इसे कथा ने खोला है। अब ‘क्लासिकल टेक्स्ट्स’ के ‘विमर्श-मूलक विखंडन’ का दौर प्रकट हो सकता है। उससे, संस्कृत- फारसी के वर्चस्ववाद को खारिज करने का ‘ज्ञान मूलक आधार’ पुष्ट हो सकता है। इससे ‘साझी जुबान’ का प्रचलन, हमारे आवाम का सजग चुनाव हो सकेगा। यहां से दक्षेस के लिये भी नहीं, पूरे मध्य-एशिया के लिये धी, किसी साझे सांस्कृतिक मंच से, किसी एक ही जुबान में अपनी आवाज बुलंद कर सकने की उम्मीदें, और गहरा सकती हैं।