उनकी भी सोचें जिनसे किसी ने हमदर्दी नहीं जतायी
पंजाब से युवाओं के पश्चिमी देशों की ओर पलायन की कई लहर चलीं। बेहतर भविष्य की तलाश में वे विदेश गये क्योंकि यहां रोजगार के माकूल अवसर नहीं। ऐसे मंे वैध-अवैध पलायन जारी रहा। अमेरिका का इन लोगों को बेड़ियों में जकड़ना कुछ ज्यादा ही आसान रहा लेकिन देश में विदेशी मुद्रा लाने वाले इन अप्रवासियों का अपमानजनक निर्वासन और उस पर देश में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करना चिंताजनक है।

गुरबचन जगत
पंजाब— पांच दरियाओं की धरती,यूनानी जिसे पेंटापोटामिया (इसका अर्थ भी वही है) पुकारते थे। वह धरा जो प्राचीन काल में सिंधु घाटी सभ्यता, ऋग्वेद और महाभारत की रही। इसी भूमि पर सिकंदर ने झेलम के तट पर पोरस से युद्ध किया, बाबर ने इब्राहिम लोदी से युद्ध किया, एंग्लो-सिख युद्ध यहीं लड़े गए - पंजाब जैसी भूमि के उदाहरण कम ही हैं, जिसने सदियों तक आक्रमण, तबाही और लूटपाट झेली हो।
हम शुरुआत करते हैं 1947 के बाद से, यानी वह घड़ी जो एक शानदार युग की सुबह होने वाली थी। यह प्रभात शेष भारत में खुशी और धूप की तरह खिली, सिवाय पंजाब और बंगाल सूबों के। जो विभाजन हुआ, वह काफी हद तक पंजाब और बंगाल का था। अंग्रेजों द्वारा खींची गई और कांग्रेस नेतृत्व , गांधी और जिन्ना द्वारा स्वीकार की गई एक काल्पनिक रेखा ने पंजाब को बांट दिया। यह पंजाब के शरीर और आत्मा के टुकड़े करना था। इसने अपने पीछे हत्या, बलात्कार और तबाही की सुनामी छोड़ी। ऐसा रक्तपात पहले कभी नहीं हुआ और संभवतः इतिहास का विशालतम जबरन पलायन।
यह बड़ी उथल-पुथल कदाचित 1950 के दशक के शुरू में पश्चिमी दुनिया की ओर शुरू पलायन की पहली लहर के अंतर्निहित मुख्य कारणों में से एक थी। शुरू में, यह मामूली थी, अधिकांशतः यूके और उसके बाद कनाडा की तरफ। दो विश्व युद्धों में इस इलाके का योगदान बहुत बड़ा था, और लौटकर आए फौजी यूरोप, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया और मध्य पूर्व से कहानियां व अनुभव सुनाते थे। मनुष्य सदा बेहतर जिंदगी तलाशता रहा, और जब घर पर मौके निराशाजनक हों, तो वह बाहर की ओर देखता है।
यहां देश में, पंजाबी जीवट धीरे-धीरे तारी हुई और अच्छे नेतृत्व और प्रशासन की मदद से, हमने बिखरे टुकड़े सहेजे और विभाजन की भयावहता पर काबू पाया और लगभग सामान्य जीवन जीने लगे। कुछ दशकों तक लगा कि हम समृद्धि-शांति की राह पर हैं। परंतु यह मृगतृष्णा साबित हुई और राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में खामियां उभरने लगीं। पहले से बंटे पंजाब में और विभाजन की मांग की गई जो अंतत: सफल हुई। अकाली सिख वर्चस्व वाला राज्य चाहते थे, वहीं पहाड़ी लोगों ने अपने लिए सुरक्षित सूबा मांगा, ठीक यही हरियाणा के लोगों ने किया। संयुक्त पंजाब को तीन राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में बांट दिया। चंडीगढ़, जिसे लाहौर के स्थान पर बतौर आधुनिक राजधानी विकसित किया गया था, वह भी जाती रही।
विभाजन से पूर्व के पंजाब सूबे के पांच प्रशासनिक संभाग थे - जलंधर (अब जालंधर), लाहौर, दिल्ली, मुल्तान और रावलपिंडी। इसे बड़ी उपलब्धि के रूप में सराहा गया, लेकिन असल में इसने पंजाब के पतन की शुरुआत की क्योंकि लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और पतनशील नेतृत्व ने अफरातफरी पैदा की। पहाड़ और उनके जंगल व जलीय स्रोत हिमाचल में वहीं राष्ट्रीय राजधानी की निकटता, इसके फायदे और यमुना किनारे की भूमि हरियाणा में चले गए। इस क्षेत्र का नाम बदलकर अब 'लघु आब' कर दिया जाना चाहिए क्योंकि यह अब 'पंज-आब' कहलवाने लायक नहीं रहा। अधिकांश विकास सूंचकाकों में ये तीनों राज्य फिसड्डियों में आते हैं। लोकतंत्र में वोट संख्या का महत्व होता है, जाहिर है संसद में 80 सीटों वाले राज्य की आवाज़ और उपस्थिति 10 या 13 सीटों वाले राज्य की तुलना में कहीं ज़्यादा है।
धीरे-धीरे युवाओं का कट्टरपंथीकरण होता गया और धर्म के नाम पर हिंसक आंदोलन के नये नारे देने वाला उग्रवादी नेतृत्व उभरा। इसके पीछे कई किस्म के नेताओं के हाथ-दिमाग थे, हालात बनते गए और हिंसा बढ़ती गई, उधर शासन की शक्ति बढ़ती गई। यह सब ऑपरेशन ब्लू स्टार त्रासदी और इंदिरा गांधी की हत्या का कारण बना, जिसके बाद भारत भर में सिखों का कत्लेआम हुआ व समय रहते उस पर अंकुश नहीं लगाया।
अगला दशक व्यर्थ गया, जिसमें रोजाना बेगुनाहों की हत्याएं होती रहीं। हमारे उत्तर-पश्चिमी पड़ोसी ने स्थिति का जमकर फायदा उठाया, चरमपंथ और आतंकवादी आंदोलन की आड़ में छद्म युद्ध चला दिया। पंजाब को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। पाकिस्तान 1948, 1965 और 1971 में बड़ी लड़ाइयां हार चुका था,वह बदला लेने की ताक में था और यह मौका हमने तश्तरी में रखकर दे दिया (1965 में भी पंजाब ने ही युद्ध का खमियाजा भुगता, क्योंकि ज्यादातर लड़ाई यहीं तक सीमित रही)। पंजाब में हालात फिर कभी पहले जैसे नहीं रहे और चुनाव होने तक, लगभग एक दशक राष्ट्रपति शासन रहा।
जनता की मांग के बावजूद, पंजाब के लिए कोई वित्तीय पैकेज या विशेष विकास कार्यक्रम नहीं दिया गया, ताकि बेगुनाह लोगों के दशकों झेले आघातों की भरपाई हो पाती। सनद रहे कि दक्षिणी, पश्चिमी और पूर्वी तटों वाले प्रायद्वीप के विपरीत, पंजाब गैर-समुद्र तटीय राज्य है, व्यापार की एकमात्र राह उत्तर-पश्चिम और मध्य एशिया की तरफ खुलती है। किंतु यह रास्ता भी बंद हो गया और खोलने की अपीलें अनसुनी रहीं। इस घटनाक्रम ने 1980 के दशक में पलायन की दूसरी और ज्यादा बड़ी लहर को जन्म दिया। राहत और रोजगार पाने की आस में पश्चिमी देशों का रुख किया।
फिलहाल, तीसरी लहर जारी है क्योंकि युवा शिक्षा और रोजगार के लिए बेहतर मुल्कों में भविष्य देख रहे हैं। मैं इसे तीसरी लहर कहता हूं क्योंकि इसमें अब वे युवा शामिल हैं जिन्हें विरासत में कर्ज में डूबा राज्य मिला (पंजाब पर लगभग 4 लाख करोड़ रुपये का ऋण है) और उसके पास अवसर या उन्हें बनाने वाली शिक्षा नदारद है। इंटरनेट जागरूकता लाया, और आगे आकांक्षा को जगाया है। युवा पश्चिमी दुनिया का जीवन और सुख पाना चाहते हैं। उन्हें यहां यह सब नहीं मिलता और न ही इसे बनाने के साधन और माहौल हैं। पंजाब से लोग वैध-अवैध पलायन कर रहे हैं। राजनेता, पुलिस और ट्रैवल एजेंटों का गठजोड़ खुलेआम चल रहा है,ढेरों पैसे दिए जा रहे हैं। इसके लिए जमीन बेची जाती हैं, कर्ज लिए जाते हैं और रिश्तेदारों से रकम जुटाते हैं। अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर खुले, वहां भी पैसे ऐंठे गए। यह सब खुलेआम चलता रहा व गांवों, कस्बों और सत्ता के गलियारों में, इसे आम बात मान लिया गया। किंतु, पंजाब की इस लूट को रोकने को कोई कदम नहीं उठाया गया।
अब, अमेरिका के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर सफाया शुरू हो गया। उन्होंने अवैध अप्रवासियों को इतने अपमानजनक तरीके से निर्वासित करना शुरू किया कि कोई भी स्वाभिमानी देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। अप्रवासियों को जकड़कर सैन्य विमानों में लाया जा रहा है, हाथ-पैर जंजीरों में बंधे होते हैं और बिना पगड़ी के भेजे जा रहे हैं। स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी का गुमान करने वाले देश का लोगों को बेड़ियों में जकड़ना कुछ ज्यादा ही आसान रहा। अमेरिकी स्वतंत्रता की सैद्धांतिक घोषणा- ‘हम इन सत्यों को स्वयंसिद्ध मानते हैं, कि सभी मनुष्य समान बने हैं, कि उन्हें उनके निर्माता द्वारा कुछ अविभाज्य अधिकार दिए गए हैं, जिनमें जीवन, आजादी और खुशी की खोज शामिल है’, का अब क्या औचित्य रहा।
जहां तक मैं जानता हूं, वापस आए लोगों के वास्ते कोई पुनर्वास समिति नहीं है। कोई विरोध दर्ज नहीं किया , कोई एतराज नहीं जताया गया। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम द्वारा उपलब्ध कराए आंकड़ों के अनुसार, भारत विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा प्राप्तकर्ता है - सालाना 100 बिलियन डॉलर से अधिक। ये लगभग 9 लाख करोड़ रुपये बनते हैं, जबकि 2023-24 में सकल जीएसटी संग्रहण लगभग 20 लाख करोड़ रुपये था। यकीनन, शासन से अप्रवासी कुछ तो सम्मान और परवाह पाने के पात्र हैं। अन्यथा, हम केवल उम्मीद पाल सकते हैं कि लड़ाकू चरमपंथी विचार और बेरोजगार युवाओं के विषाक्त मिश्रण वाला माहौल फिर पैदा न हो।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल और जम्मू-कश्मीर के डीजीपी रहे हैं।