आस्था में पुण्य प्रदान करने का सामर्थ्य
द्वैत के भीतर हमें समाज में आस्तिकता और नास्तिकता का प्रभाव भी दिखाई देता आया है। हर आस्तिक व्यक्ति की सबसे बड़ी शक्ति ‘आस्था’ होती है, जो व्यक्ति की जीवनी शक्ति बनती है।
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
समाज में एक बड़ी पुरानी कहावत चली आ रही है कि ‘जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन’ और ‘जैसा पीए पानी, वैसी होए बानी’। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि हमारा चिंतन हमारे खान-पान के अनुसार ही बनता है। हमें संसार में द्वैत दिखलाई देता है यानी सच के साथ झूठ, दिन के साथ रात, ठण्ड के साथ गर्मी, सफेद के साथ काला और सकारात्मकता के साथ नकारात्मकता सदा रहती ही है। इसी द्वैत के भीतर हमें समाज में आस्तिकता और नास्तिकता का प्रभाव भी दिखाई देता आया है। हर आस्तिक व्यक्ति की सबसे बड़ी शक्ति ‘आस्था’ होती है, जो व्यक्ति की जीवनी शक्ति बनती आई है। ‘आस्था’ की शक्ति को तुलसीदास के शब्दों में देखा जा सकता है :-
‘एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास।’
इधर प्रयागराज में ‘महाकुम्भ’ बड़ी धूमधाम के साथ संपन्न हुआ है, जहां ‘आस्था का महासागर’ हिलोरें ले रहा था और पूरे भारत से जाति, धर्म, वर्ग और ऊंच-नीच के भेद की परवाह किए बिना करोड़ों नर-नारी पतितपावनी मां गंगा में स्नान करने संगम-तट पर पहुंच रहे थे। इन करोड़ों नर-नारियों की शक्ति वस्तुतः उनकी ‘आस्था’ ही थी, जिसके बल पर वे रेलों और बसों के साथ ही पैदल चल-चल कर ‘संगम तट’ पर पहुंचे।
आज जाने क्यों, ब्रह्ममुहूर्त में प्रयागराज के संगम तट से एक जोरों की बहस का स्वर सुनकर मुझे लगा कि इस बहस को तो अवश्य सुनना चाहिए। असल में यह बहस ‘आस्था’ और ‘नास्तिकता’ के बीच हो रही थी और चिढ़ी हुई नास्तिकता कुछ अधिक ही गुस्से में आस्था से सवाल पर सवाल पूछे जा रही थी। आस्था शांत भाव से उत्तर दे रही थी।
नास्तिकता का सवाल सबसे पहले ‘संगम तट’ की गंगा से यह था कि करोड़ों व्यक्तियों के जो ‘पाप’ तुम रोज़ धो रही हो, उन्हें ले जाकर रखती कहां हो? महाकुंभ में उमड़े जनसमूह को उनकी असीम श्रद्धा के अनुसार स्नान कराने वाली पतितपावनी ‘गंगा’ ने शांत भाव से उत्तर दिया, ‘नास्तिकता बहन! मैं किसी का भी पाप या पुण्य अपने पास नहीं रखती, बल्कि ले जाकर सब कुछ सागर को अर्पित कर देती हूं।’
गंगा की यह बात सुनकर नास्तिकता सागर के पास जाकर बड़े अभिमान के स्वर में बोली, ‘ऐ सागर! करोड़ों लोगों के पाप और पुण्य गंगा से लेकर तू कहां रखता है? मुझे साफ-साफ बता।’ सागर को नास्तिकता की अभिमान भरी भाषा बुरी तो लगी, लेकिन वह धैर्यपूर्वक शांत भाव से बोला कि मैं तो अपने पास कुछ भी नहीं रखता, बल्कि सूर्य भगवान के ताप से सारे पाप-पुण्य को ‘भाप’ बना-बना कर बादलों को दे देता हूं।
अब क्या था, गुस्साई नास्तिकता सागर को छोड़ कर बादलों के पास जा पहुंची और बोली, ‘अरे बादलो! अब तुम मुझे बताओ कि सागर गंगा से मिले जन-जन के जो पाप और पुण्य तुम्हें भाप के रूप में सौंप देता है, उनको तुम कहां रखते हो?’
बादल गरज कर बोले कि सुन नास्तिकता! हम कुछ भी अपने पास नहीं रखते। हम तो वर्षा के रूप में सारे के सारे पाप और पुण्य भूमि को लौटा देते हैं, इसलिए तुम जानना ही चाहती हो तो भूमि से ही जाकर पूछो। व्यर्थ में हमारे सिर पड़ कर हमें तंग मत करो।
बुरी तरह झल्लाई हुई नास्तिकता आखिर भूमि के पास आई और उससे भी वही सवाल पूछा कि जो पाप और पुण्य गंगा में नहाकर लोग छोड़ आते हैं और बादल तुम्हें वर्षा के रूप में दे देते हैं, उनका तुम क्या करती हो? भूमि ने बड़े ही धैर्यपूर्वक नास्तिकता से कहा-’ तुम शायद नहीं जानती कि मैं ‘माता’ हूं। शास्त्र कहते हैं- ‘माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या’, इसलिए मां होने के नाते मैं तो सब कुछ ‘अन्न और जल’ के रूप में इस सारे संसार को ही लौटा देती हूं।
मेरी कोख से उपजा हुआ अन्न संसार का हर मानव खाता है और मेरे कुओं, तालाबों, झरनों और नदियों आदि का जल जन-जन पीता है। जो कुछ भी अच्छा या बुरा मां गंगा लेती हैं, वही सब कुछ जब मुझ तक पहुंचता है, तो मैं उसे अन्न-जल के रूप में संसार को लौटा देती हूं। आस्था उसी ‘पाप-पुण्य’ को अन्न के रूप में खाकर ‘पुण्य’ बना लेती है, जबकि तुम नकारात्मक दृष्टि होने के कारण उसे ‘पाप’ ही मानती हो। याद रक्खो, जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन और जैसा पीए पानी, वैसी होए बानी।
‘आस्था तो पाप को भी, पुण्य बनाती आप।
नास्तिकता अड़ियल रहे, पुण्य को समझे पाप।’
मुझे लगा कि आस्था मुस्कुरा रही है और नास्तिकता गुस्से में तमतमा कर गंगा को गालियां दे रही है। आज मेरे ‘अंतर्मन’ को सचमुच संसार की सबसे बड़ी शक्ति ‘आस्था’ के उस रूप का पता चल गया, जो प्रयागराज में गए करोड़ों नर-नारियों की संजीवनी बन गई है।