आसान नहीं मां की जिम्मेदारी निभाना
मां की भूमिका भले ही साधारण दिखती है पर इसे निभाने के लिए असाधारण ऊर्जा और समर्पण चाहिये। बच्चे के पालन-पोषण के दौरान मांओं की जिंदगी बेहद कठिनाई भरी होती है। एक अध्ययन के मुताबिक, वह प्रतिदिन औसतन 14 घंटे बच्चे के लिए काम करती है। मदर्स डे के मौके पर प्रासंगिक है कि इस भूमिका के मायने परिजन भी समझें। मातृत्व की जिम्मेदारियों को सम्मान मिले। जरूरी है कि कार्यस्थल पर वर्किंग मदर्स को सहज माहौल मिले।
डॉ. मोनिका शर्मा
एक अध्ययन के अनुसार, मां का काम किसी नौकरी में करने वाले काम के मुकाबले ढाई गुना ज्यादा होता है। यह अध्ययन कहता है कि एक मां बच्चे की देखभाल में 98 घंटे प्रति सप्ताह काम करती है। दो हजार माताओं को लेकर अमेरिका में हुए इस सर्वे में 5 से 12 साल की उम्र के बच्चों की मदर्स द्वारा कही गयी सभी बातें विचारणीय रहीं। अध्ययन के नतीजों में सामने आया कि बच्चे को पालना किसी पूर्णकालिक नौकरी से कम नहीं है। रिसर्च के मुताबिक, एक मां दिनभर में औसतन 1 घंटा 7 मिनट का समय ही अपने लिए निकाल पाती है, वहीं 40 फीसदी मांएं अपनी जिंदगी कभी न खत्म होने वाली कार्यसूची के दबाव में गुजारती हैं। हमारे परिवेश में भी माताओं की आपाधापी दिख जाती है। जरूरी है कि इस भागदौड़ को समझा जाये। बच्चों की सुरक्षा की फिक्र से लेकर स्नेहसिक्त संभाल तक मदर्स की भागीदारी को मान मिले। हर परिस्थिति में अपनों का साथ-साहयोग मिले।
मातृत्व की ज़िम्मेदारी के मायने
असल में, अध्ययन हों या आम जीवन में होने वाली सहज अनुभूतियों की चर्चा, माताओं की जिंदगी की कठिनाइयां सामने आती रहती हैं। करीब 12 वर्ष पहले हुए एक सर्वे में सामने आया था कि एक मां के कार्यों की सूची में लगभग 26 काम होते हैं। मां औसतन सुबह से रात तक 14 घंटे तक बच्चे के लिए काम करती है। यानि सप्ताह के पूरे 7 दिन 14 घंटे की पारी के बराबर काम। यह किसी भी सामान्य नौकरी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। वर्ष 2013 का यह अध्ययन कहता है कि मां का काम सबसे बड़ा तो है ही, सबसे मुश्किल भी है। बीते एक दशक में बच्चों के पालन-पोषण की स्थिति और मुश्किल ही हुई है। खासकर भावनात्मक और सुरक्षा के फ्रंट पर तो माताओं को हर पल चिंता घेरे रहती है। हर देश-समाज में मदर्स की भूमिका भले ही साधारण दिखती है पर इसे निभाने के लिए असाधारण ऊर्जा और समर्पण की दरकार होती है। जरूरी है कि इस भूमिका के मायने परिजन भी समझें। समाज में मातृत्व से जुड़ी जिम्मेदारियों को सम्मान देने का भाव बना रहे। कामकाजी दुनिया में वर्किंग मदर्स को सहज माहौल मिले। मदर्स डे मनाने की सार्थकता विचार-व्यवहार के इस बदलाव से ही जुड़ी है।
हटे ‘थैंकलैस जॉब’ टैग
माताओं को लेकर बहुत कुछ कहे-सुने जाने के बावजूद व्यावहारिक मोर्चे पर मदर्स कहीं पीछे छूटती सी लगती हैं। हमारे पारिवारिक परिवेश में तो आज भी यह खूब देखने को मिलता है। जबकि मातृत्व की जिम्मेदारियों और जद्दोज़हद के मोर्चे पर भारत में महिलाओं के काम और परेशानियां पश्चिमी देशों से कहीं ज्यादा हैं। बावजूद इसके जाने क्यों और कैसे यह तक कहा जाने लगा कि मां का जॉब ‘थैंकलैस जॉब’ होता है। मां की भूमिका का महिमामंडन नहीं बल्कि सहज रूप से उनकी समस्याएं समझने और साथ देने का भाव आये। उपेक्षा का रवैया न बरता जाये। हालिया बरसों में भले ही मशीनें घर के कामकाज में मददगार बनी हैं पर बतौर मां घर और बच्चों की जिम्मेदारी संभाल रही महिलाओं की भागदौड़ कम नहीं हुई। बच्चों के पालन-पोषण की यह संजीदा जिम्मेदारी सरल समझी जाती है। वहीं मदर्स बच्चों के मन की बात समझने के फेर में अपने मन का करना ही भूल जाती है। कमोबेश हर घर में मांओं को दूसरों की शर्तों, इच्छाओं और खुशियों के लिए जीने की आदत सी हो जाती है। गौरतलब यह भी कि आज की तो मां सुपर मॉम की भूमिका में हैं। उसके हिस्से की जिम्मेदारियां अब और बढ़ गयीं। पढ़ी-लिखी मांएं बच्चों को हर तरह से सपोर्ट करने की कोशिश करती हैं। घर-परिवार को भी बेहतर तरीके से संभाल रही हैं। उनकी इस भूमिका के प्रति मान का भाव होना बहुत आवश्यक है।
मां के मन-जीवन को भी समझें
मौजूदा समय में घर और बाहर बहुत कुछ बदल गया है लेकिन मदर्स के श्रम की अनदेखी बदस्तूर कायम है। यह उपेक्षा अपराधबोध के भाव को भी जन्म देती है। वे तनाव और अवसाद की शिकार बन जाती हैं। अनदेखी भरा यह रूखा व्यवहार भले ही हमारे परिवारों में साधारण सी बात माना जाता है पर इस बर्ताव के चलते अपना सब कुछ बच्चों का जीवन सहेजने और संवारने में लगा देने वाली मांओं के मन में खुद को कम आंकने और हर तरह से नाकाम होने की सोच पनपने लगती है। तकलीफदेह यह भी है कि हर दिन घंटों मातृत्व की जिम्मेदारी निभाने की भागदौड़ की भावनात्मक टूटन के दौर में भी अपनों का सहयोग नहीं मिलता। परिवार के सदस्यों में मातृत्व से जुड़ी जद्दोज़हद को साझा करने का भाव अब भी नहीं आया है। जिसके चलते महिलाएं मदरहुड के दौर में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियां भी झेलती हैं। अपनों का सहयोग और सम्बल न मिलने से शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों की भी चपेट में आ जाती हैं। इसीलिए अपने हों या बड़े हो चुके बच्चे, मां के मन को भी समझें। मदर्स के रोल को सराहें। उनके साथ की अहमियत समझने और सराहने का सहज मानवीय भाव रखें।