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आया मौसम कुर्सी पे फुदकने का

04:00 AM Mar 12, 2025 IST
आया मौसम कुर्सी पे फुदकने का
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डॉ. हेमंत कुमार पारीक

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हमारे देश की कुर्सियां पता नहीं किस लकड़ी की बनी हुई हैं कि कुर्सी की चाह में कब्र में पड़ी आत्माएं भटकती रहती हैं। कभी बाबर की आत्मा चली आती है, कभी औरंगजेब की तो कभी जिन्ना की। कितना ही काला-पीला करो पानी का एक झला पड़ते ही सब गुड़-गोबर हो जाता है। दीवारें बेचारी देखती रह जाती हैं। नाम पट्टियां फिर चमकने लगती हैं। कोई लिखे कोई मिटाए। खेल चलता ही रहता है। अब उस आत्मा का क्या दोष? उसके चाहने वाले गली-गली भटक रहे हैं। जब चिरनिद्रा में लीन शख्स की चाह में विधानसभा और संसद स्थगित होने लगें तो क्या कीजे? और उसकी शान में कसीदे पढ़े जा रहे हों कि भाई मियां सूई धागा ले अपनी टोपी और पायजामे की तुनपन करते थे। काम तो सही था। चाहता तो शीशमहल बनवा देता दर्जियों के लिए। जबकि उसके राज्य में दर्जियों की कमी न थी। एक को बुलाता तो सौ खड़े होते लाइन में।
कल फिर किसी ने आवाज दी, भाई औरंगजेब, हाजिर हों। सबने सुना। पड़ोस की कब्रें हिलने लगीं। धरती कांप उठी। आसमान रोने लगा। बाबर और जिन्ना करवटें बदलने लगे। इस उम्मीद में कि बस उनका नम्बर आने वाला है। कुर्सियों पर जमे विरोधियों के बदन में आग लग गयी। कारण था कुर्सी। अब भाई साहब को ही देख लो, कुर्सी के गम में कारों का काफिला लिए दर-दर भटक रहे हैं। लोग गिनते जा रहे एक, दो, दस, बीस...। गिनती करना सबका अधिकार है। कुर्सी दौड़ तो हमारे यहां पॉपुलर गेम है। पर कभी इंटरनेशनल न हुआ। इतनी सारी कुर्सियां हैं। उनमें से अदद एक कुर्सी दे ही दी जाए तो हर्ज ही क्या? भले ही पीवीसी वाली ही क्यों न हो। सादगी की बात तो वह कह सकेगा। खादी की बात तो कर ही सकता है। अगर उस वक्त खादी होती तो भाई सबको खादी पहना देता। खादी की गारंटी देता। सारा काम छोड़ चरखे पर सूत कातने बैठ जाता और अपने लिए खादी की टोपी सिल लेता।
मगर वक्त-वक्त की बात होती है। दिल्ली बेचारी तो भुगतती रही है। कभी औरंगजेब को तो कभी तुगलक को। कभी दौलताबाद हुई। अभी दरियागंज होने वाली थी मगर दुर्भाग्य कि न हो सकी। नीबू पानी पीने वाला फ्री की दारू देख बावरा हो जाता है। भूखा बंगाली परांठे देख उछलने लगता है। कुर्सी याद आने लगती है। उस वक्त दिल्ली में परांठे वाली गली न थी और न सरोजनी मार्केट था, वरना औरंगजेब रंग-बिरंगी टोपी पहन नाचने गाने लगता। गाता फिरता-बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...।

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