आत्मचिंतन से आत्मज्ञान तक की यात्रा
संत कबीरदास केवल भक्तिकालीन कवि नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति, धार्मिक समरसता और आत्मचिंतन के प्रतीक थे। उन्होंने जाति, धर्म और पाखंड का विरोध करते हुए निर्गुण भक्ति और मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि माना। कबीर का दर्शन आत्मा की शुद्धि, विवेक और सत्य की खोज का मार्ग दिखाता है, जो आज के खंडित और भटकते समाज के लिए अत्यंत प्रासंगिक और प्रेरणादायक है।
राजेंद्र कुमार शर्मा
भारत की संत परंपरा में संत कबीर का नाम न केवल एक काव्यधर्मी संत के रूप में लिया जाता है, बल्कि उन्हें एक सामाजिक क्रांतिकारी, दर्शनशास्त्री और अंतरात्मा की आवाज कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।सन्त कबीरदास भारत के प्रसिद्ध कवि, सन्त तथा समाज सुधारक थे। उनके लेखन ने भक्ति आन्दोलन पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। सन्त कबीरदास की 648वां जन्म वर्षगांठ कबीरदास जयन्ती के रूप में बुधवार, जून 11 को मनाई जाएगी। हर वर्ष ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को उनकी जयंती मनाना एक परंपरा मात्र नहीं, बल्कि उन विचारों का पुनः स्मरण और पुनर्जागरण है, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पंद्रहवीं सदी में थे।
कबीर का जन्म
लोकप्रिय जनश्रुतियों के अनुसार, कबीर का जन्म 1398 ई. के आसपास काशी (वर्तमान वाराणसी) में हुआ। किंवदंती कहती है कि एक तालाब के किनारे से एक मुस्लिम जुलाहा दंपत्ति नीमा और नीरू ने उन्हें पाया और पाल-पोसकर बड़ा किया। परंतु कबीर के विचारों में कहीं भी जन्म की अहमियत नहीं है। वे स्वयं कहते हैं ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।’ अर्थात मानव जन्म नहीं, मानव धर्म मायने रखता है।
कबीर का दर्शन
कबीर न तो मंदिर में ईश्वर को खोजते हैं, न मस्जिद में। उनका भगवान कहीं बाहर नहीं, बल्कि भीतर है। वे निर्गुण भक्ति के प्रबल प्रवर्तक थे, जिसका अर्थ है निराकार ईश्वर की उपासना। उनके दर्शन का मूल है ‘सत्य की अनुभूति ‘, न कि किसी शास्त्रगत मतवाद का अनुसरण। मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में। ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में।’ कबीर दर्शन हमें आत्मनिरीक्षण और आंतरिक शुद्धि की ओर ले जाती है, बाहरी कर्मकांडों से ऊपर उठने का आह्वान करती है।
गुरु रामानंद से दीक्षा
कहते हैं कि कबीर ने गुरु रामानंद से दीक्षा पाने का प्रयास किया, परंतु रामानंद उस समय केवल ब्राह्मणों को ही शिष्य बनाते थे। कबीर ने एक रात्रि पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर लेटकर, रामानंद को वहां से गुजरने दिया। अंधेरे में रामानंद का पैर कबीर पर पड़ा और उनके मुंह से ‘राम-राम’ निकल पड़ा। कबीर ने इसे ही ‘गुरुमंत्र’ मान लिया। यह प्रसंग दिखाता है कि कबीर संस्थागत गुरु-शिष्य परंपरा से नहीं, बल्कि सार तत्व की प्राप्ति से ज्ञान को मान्यता देते थे।
मृत्यु और मोह का त्याग
तब यह मान्यता थी कि काशी में मरने से मोक्ष मिलता है और ‘मगहर’ में मरने से नरक। पर कबीर ने अपने अंतिम दिन वहीं बिताए। वे बोले, ‘यदि काशी में मरना ही मोक्ष है, तो यह भगवान की अपार कृपा पर संदेह करना होगा।’ उनकी समाधि पर हिन्दू और मुसलमान दोनों संप्रदायों में विवाद हुआ कि उनका अंतिम संस्कार कैसे हो। परंतु जब कबीर की चादर उठाई गई, तो वहां केवल फूल मिले कहते हैं उन्होंने अपने देह से भी धार्मिक एकता और सौहार्द का संदेश दिया।
प्रासंगिकता
आज का समाज फिर से धर्म, जाति, संप्रदाय, और भौतिकवाद की खाइयों में बंट रहा है। तकनीकी उन्नति से भरे होने के बावजूद मनुष्य अपने भीतर से खाली होता जा रहा है। ऐसे समय में कबीर दर्शन दर्पण के समान हमारे सामने खड़ी है।
आत्मचिंतन की आवश्यकता
आत्मचिंतन की आवश्यकता पर बल देते हुए कहते है कि श्बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥’ आज जब हम सोशल मीडिया के माध्यम से दूसरों को ट्रोल करने, जज करने, या दोष देने में लगे हैं, कबीर दर्शन हमें अपने भीतर झांकने का संदेश और साहस देते हैं।
जीवन का संदेश
‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए॥’ यह दोहा केवल संतुलित जीवन ही नहीं, सस्टेनेबल लाइफस्टाइल के मर्म का आज के युग में एक प्रासंगिक विचार है। जहां लोभ नहीं, आवश्यकता के अनुसार उपभोग है।
धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय
कबीर का दर्शन धर्मों के बीच की दीवारें गिराता है। वे कहते हैं : ‘हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे रहमाना। आपस में दोउ लड़ै मरै, मरम न कोऊ जाना॥’ आज की सांप्रदायिक राजनीति और वैचारिक उग्रता में कबीर एक सेतु बन सकते हैं, जो समझाते हैं कि भगवान नाम से नहीं, भाव से मिलते हैं।
संत की रचनाएं
उनकी रचनाओं में बीजक, साखी ग्रन्थ, कबीर ग्रन्थावली तथा अनुराग सागर सम्मिलित हैं। कबीर की रचनाओं का प्रमुख भाग पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव द्वारा एकत्र किया गया था तथा सिख धर्मग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित किया गया था।
कबीरदास जयंती का एक ही संदेश है कि बाह्य दिखावे की पूजा अर्चना से नहीं बल्कि संत के दर्शन, विचारों का जीवन में अनुसरण करके, अपने व्यवहार, अपनी चेतना में आत्मसात करने से ही सही अर्थों में कबीर जयंती मनाने की परम्परा सफल होगी।
जब तक समाज में अन्याय, अंधविश्वास, और आत्मविस्मृति जैसी कुरीतियां विद्यमान रहेंगी, तब तक कबीर प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि वे एक बीता हुआ कल नहीं बल्कि मनुष्य के भीतर छिपे विवेक और सत्य का वर्तमान हैं।