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आंतरिक जगत से अनभिज्ञता ही दुखों का कारण

04:00 AM Jun 30, 2025 IST
आंतरिक जगत से अनभिज्ञता ही दुखों का कारण
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हम जब साक्षी भावों से अपने मनोभावों का विश्लेषण करते हैं तो हम आंतरिक दुनिया से जुड़ते हैं। फिर हमारे तमाम संशय क्षीण होते जाते हैं। कमोबेश अनिर्णय की स्थिति खत्म होती है। हम खुद में एक नई ऊर्जा महसूस करते हैं।

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डॉ. मधुसूदन शर्मा

भौतिक लिप्साओं के सम्मोहन और दुनियावी चमक-दमक में डूबा मनुष्य जीवनपर्यंत यह नहीं जान पाता कि उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य आखिर क्या है। जन्म लेने से मृत्यु तक मनुष्य को पारिवारिक संस्था से सिखाने की आरंभ हुई प्रक्रिया स्कूल-कालेज होती हुए तकनीकी संस्थानों तक मनुष्य को ज्ञान देती रहती हैं। प्राचीन समय में बाह्य ज्ञान की आपाधापी में मनुष्य को खुद को पहचानने की सीख हमारा धर्म व अध्यात्म देता रहा है। ताकि जिससे मनुष्य अंतर्मुखी होकर अपनी आंतरिक शक्तियों को जान सके। हमारे ऋषि-मुनि सदियों से मनुष्य को खुद को जानने का मार्ग बताते रहे हैं। ताकि जिससे मनुष्य को अपनी आंतरिक शक्तियों का भान हो सके। हमारे आध्यात्मिक व धार्मिक गुरु अपनी आंतरिक यात्राओं के जरिये ही विशिष्ट ज्ञान व शक्तियों को ग्रहण करते रहे हैं। उनके यही गुण उन्हें सामान्य मनुष्य में विशिष्टता प्रदान करते हैं।
विडंबना यह है कि आज हमारा जीवन इतना कृत्रिम हो चला है कि हमने भौतिक सुख-सुविधाओं को ही जीवन का अंतिम हासिल मान लिया है। लेकिन वास्तव में यह मानवीय मूल्यों के क्षरण और आंतरिक शक्तियों के पराभाव का कारक है। हम अपने जीवन की उस गहन यात्रा से वंचित हो जाते हैं जो हमें भीतर की दुनिया की ओर ले जाती है। निस्संदेह, मनुष्य तभी पथभ्रष्ट और अमानवीय कृत्य करता है जब वह अंतर्मन की आवाज को अनसुना कर देता है। यही वजह है कि आज हमारा समाज संवेदनहीन होता जा रहा है। सही मायनों में संवेदनशीलता मनुष्य का अपरिहार्य गुण है। यह उच्च मानवीय अभिव्यक्ति है। ये भाव उसी व्यक्ति में मुखरित होते हैं जिसे अंतर्ज्ञान का बोध हो जाता है। यही भाव मनुष्य में परोपकार की भावना को जाग्रत करता है।
दरअसल, कोई भी मनुष्य तब तक संपूर्ण नहीं हो सकता है जब तक कि वह खुद को न जान ले। दरअसल, जिस खुशी को हम भौतिक वस्तुओं व लिप्साओं में तलाशते हैं वह तो नश्वर संसार में हमारे क्षरण का जरिया है। दरअसल, असल खुशी तो आंतरिक होती है। जो हमारी मनःस्थिति पर निर्भर करती हैं। सही मायनों में सांसारिक सुखों में ही हमारे दुख के कारक निहित होते हैं। लेकिन अंतर्मन के ज्ञान को हासिल करने वाला व्यक्ति हर हाल में सुखी रहता है। उसकी खुशी वास्तविक है और दीर्घकालीन होती है। सही मायनों में खुद को जानकर ही मनुष्य आध्यात्मिक की राह में आगे बढ़ सकता है।
दरअसल, आज मनुष्य जिन मनोकायिक रोगों से जूझ रहा है उसके मूल में जीवन की कृत्रिमताएं हैं। हमारा जीवन लगातार यांत्रिक होता जा रहा है। सही मायनों में हम आज मशीनी जीवन शैली के पुर्जे मात्र बनकर रह गए हैं। विडंबना यह है कि हमारे जीवन का यह यांत्रिक चक्र जीवन पर्यंत यूं ही चलता रहता है। जब तक हमें वास्तविकता का अहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। दरअसल, हमारे पूर्वजों ने आश्रम व्यवस्था का सूत्रपात इसीलिए किया था कि एक निश्चित समय के बाद सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के जरिये अंतर्मन की यात्रा की ओर उन्मुख हो सकें। लेकिन पश्चिमी जीवन शैली का अंधानुकरण करके हम आज जीवन में पंच-क्लेषों का ही अंगीकार कर रहे हैं। हमारे जीवन में आलस्य व प्रमाद का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। हम सात्विक जीवन शैली से विमुख होते जा रहे हैं।
मनुष्य को पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के साथ ही खुद से पूछना चाहिए कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है... मेरा अंतर्मन से संवाद क्यों स्थापित नहीं हो पा रहा है... क्या कभी हमने अपनी आंतरिक शक्तियों को जानने का प्रयास किया... क्या हम आत्मविश्लेषण कर पा रहे हैं कि हमारे जीवन के लक्ष्य क्या हैं...। दरअसल, हम सजगता व व्यवस्थित जीवन शैली के जरिये ही गहन जीवन दृष्टि हासिल कर सकते हैं। जो हमारी अंतर्दृष्टि को जगाने में सहायक हो सकती है। कालांतर हमारी आंतरिक प्रेरणाएं ही हमारे वास्तविक जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं। दूसरे शब्दों में आत्मविश्लेषण के जरिये ही हम आत्मोन्नति की राह पर चल सकते हैं। दरअसल, एक आईना है आत्मविश्लेषण, जो हमें गहन आंतरिक यात्रा की ओर ले जाने में बाधक तत्वों से मुक्ति प्रदान करता है।
प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों ने योग के जरिये हमारी आंतरिक यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया है। इसमें अष्टांग योग मददगार होता है। यम-नियम से जहां हमारा जीवन सात्विक होता है, वहीं आसन से हमारी ध्यान में बैठने की प्रक्रिया सुगम होती है। ध्यान व धारणा इसमें सहायक होते हैं। कालांतर ऋषि मुनि व साधक मोक्ष की राह की ओर अग्रसर होते हैं। हम जब साक्षी भावों से अपने मनोभावों का विश्लेषण करते हैं तो हम आंतरिक दुनिया से जुड़ते हैं। फिर हमारे तमाम संशय क्षीण होते जाते हैं। कमोबेश अनिर्णय की स्थिति खत्म होती है। हम खुद में एक नई ऊर्जा महसूस करते हैं।
वास्तव में हर व्यक्ति को ईमानदारी से आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि उसके जीवन में विचारों का भटकाव क्यों है, जिस अध्यात्म के अनुकरण का दिखावा वह कर रहा है, क्या वास्तव में जीवन-व्यवहार हमने उतारा है... दरअसल, हमें अपने विचार व आकांक्षाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन करना चाहिए। हमें अपनी कमजोरियों का ईमानदार विश्लेषण करना चाहिए। दूसरों के दोषों पर चर्चा करने के बजाय हमें अपने अवगुणों का भी अवलोकन करना चाहिए और उनसे मुक्ति की ईमानदार कोशिश की जानी चाहिए। सही मायनों में आत्मविश्लेषण की ईमानदार कोशिश ही हमारी आंतरिक यात्रा की राह खोलती है।

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