आंगन को छोटा करने वाली दीवारें न उठ पाएं
धार्मिक एकात्मता का अनूठा उदाहरण है हमारा भारत। दुनिया के किसी भी देश में इतने धर्म साथ-साथ नहीं पल रहे, जितने हमारे देश में हैं। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध सब धर्मों के अनुयायी यहां साथ-साथ जीते हैं। विविधता में एकता का अनूठा उदाहरण है यह। यह विविधता हमारी ताकत है। यह ताकत कमज़ोर नहीं पड़नी चाहिए।
विश्वनाथ सचदेव
मौनी अमावस्या के दिन प्रयागराज में ‘अमृत स्नान’ के अवसर पर जो कुछ हुआ वह हृदय-विदारक है। कितने घायल हुए, कितने भगदड़ में मर गये, इस संख्या को लेकर विवाद होता रहेगा; इस भयानक हादसे के कारणों को लेकर भी विवाद चलता रहेगा। निश्चित रूप से यह एक भयंकर त्रासदी है, जिसे लेकर सारा देश उद्विग्न है। परेशान भी है। इस हादसे की देश में ही नहीं, दुनिया भर में चर्चा हो रही है। यह स्वाभाविक भी है, ज़रूरी भी। दुनिया के इस सबसे बड़े मेले में चालीस करोड़ से भी अधिक श्रद्धालुओं के आने का अनुमान लगाया गया था। सरकार इस बात को जानती थी। यही नहीं, तरह-तरह के संसाधनों से अधिकाधिक यात्रियों को इस अमृत पर्व आयोजन का हिस्सा बनने के लिए कहा जा रहा था। हद तो तब हो गयी जब इस मेले में आने को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखा जाने लगा।
बहरहाल, इस सब की चर्चा देश में खूब हो रही है। होनी भी चाहिए। पर ‘अमृत स्नान’ की उस रात प्रयागराज में कुछ और भी ऐसा हुआ था जिसकी उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी होनी चाहिए थी। जब लाखों की संख्या में श्रद्धालु शरण पाने के लिए उमड़ रहे थे, थके- हारे परेशान हो रहे थे तो इलाहाबाद के मुसलमानों ने अपने हिंदू भाइयों के लिए मस्जिदों के दरवाज़े खोल दिये थे, परेशान यात्रियों को अपने घरों में जगह दी थी। उन्हें चाय दी, खाना दिया, बिस्तर दिये, दवाइयां दी। यह दृश्य रोमांचित करने वाला था। यह वे ही लोग थे, जिनके लिए कुछ लोगो ने यह कहा था कि उन्हें मेला क्षेत्र में दुकान लगाने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिकों पर इस तरह का बंधन किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। सच पूछा जाये तो यह पंथ-निरपेक्ष भारत की नागरिकता का अवमूल्यन था। यह एक कड़वा घूंट ही होगा उन सब नागरिकों के लिए जो पंथ-निरपेक्षता में विश्वास करते हैं। स्वतंत्र भारत में कभी कुंभ-पर्व के अवसर पर हमारी गंगा-जमुनी सभ्यता और संस्कृति को नकारने की बात इससे पहले नहीं कही गई। इस सबके बावजूद मौनी अमावस्या की उस रात में प्रयागराज के मुस्लिमों ने मनुष्यता का एक शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया था। हकीकत यह भी है कि इस मनुष्यता के उदाहरण की उतनी चर्चा हुई नहीं, जितनी होनी चाहिए थी। उस रात कुंभ में पवित्र त्रिवेणी में स्नान करने के लिए आये परेशान यात्रियों के लिए जो सद्भाव के प्रयास हुए, उसके महत्व को आज नहीं तो कल अवश्य समझा जायेगा। समझा जाना ही चाहिए।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का अनुकरणीय काम देश में पहली बार हुआ है। अतीत में भी हिंदू और मुसलमान, दोनों इस तरह के उदाहरण प्रस्तुत करते रहे हैं। कुछ साल पहले कोलकाता के एक मंदिर के दरवाज़े उन नमाज़ी मुसलमानों के लिये खोल दिये गये थे जो तेज वर्षा के कारण खुले में ईद की नमाज नहीं पढ़ पा रहे थे। वे दिन भी थे जब ईद और दीपावली हिंदू-मुसलमान मिलकर मनाते थे। हिंदू मीठी सवैयों के लिए अपने मुसलमान पड़ोसी की ईद का इंतजार करते थे और मुसलमान हिंदू मित्र से दीपावली की मिठाई पाना अपना अधिकार समझते थे।
ऐसा नहीं है कि मेलजोल की यह भावना अब खत्म हो गयी है। पर एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि स्वतंत्र भारत में दोनों मजहबों के बीच दीवारें उठाने की कोशिश अब अक्सर होने लगी है। दोनों ही वर्गों में ऐसी आवाज़े उठ जाती हैं, जिन्हें सुनकर दुख भी होता है और निराशा भी होती है। यह काम जो भी करते हैं, वे देश को बांटने वाले हैं, जोड़ने वाले नहीं।
सदियों से इस देश में हिंदू और मुसलमान मिल-जुल कर रहे हैं। अब तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक यह भी कह रहे हैं कि इस देश के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। तो फिर हमारे आंगन को छोटा करने वाली दीवारें क्यों उठ रही हैं? देश को बांटने वाली ताकत जब-तब हमारे विवेक पर क्यों हावी हो जाती है? हैरानी की बात तो यह भी है कि ईश्वर और अल्लाह का नाम साथ-साथ लेने पर भी कुछ लोगों को ऐतराज है! देश और समाज को बांटने वाली यह ताकतें यह क्यों भूल जाती हैं कि सदियों से यह देश धार्मिक एकता का उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है। आज से ठीक 1018 साल पहले संत झूलेलाल ने ‘ईश्वर-अल्लाह हिक आहे’ का संदेश दिया था। ‘दमा दम मस्त कलंदर’ की धुन पर नाचने-गाने वाले हमारे इतिहास के स्वर्णिम अध्यायों को क्यों याद नहीं रखते?
बहरहाल, प्रयागराज की बात करें। यह बात ज्यादा माने नहीं रखती कि कौन गंगा के पानी को कितना पवित्र मानता है, महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि गंगा का पवित्र जल सबके लिए एक-सा है; सबको पुण्य देने वाली गंगा किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं बरतती। गंगा मां है, सब उसकी संताने हैं। इसलिए जो भी गंगा के पानी में डुबकी लगायेगा, पुण्य पायेगा। मौनी अमावस्या की उस रात में वे सब पुण्य के भागी बने थे जिन्होंने डुबकी लगायी या जिन्होंने डुबकी लगाने के लिए आये यात्रियों की परेशानी को दूर करने में योगदान किया। उस रात प्रयागराज में मनुष्यता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया गया था।
धार्मिक सहिष्णुता के संदर्भ में एक बात और हमें याद रखनी होगी। आज भले ही हिंदू-मुसलमान के बीच दीवारें उठाने की कोशिशें हो रही हों, पर हकीकत यह है कि देश का हर नागरिक इसी मिट्टी में जन्मा है, इसी देश की हवा उसकी सांसों में है। इसलिए, ऐसी हर कोशिश को नाकाम करने की ज़रूरत है जो जोड़ने के बजाय बांटने की कोशिश करे। धार्मिक एकात्मता का अनूठा उदाहरण है हमारा भारत। दुनिया के किसी भी देश में इतने धर्म साथ-साथ नहीं पल रहे, जितने हमारे देश में हैं। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध सब धर्मों के अनुयायी यहां साथ-साथ जीते हैं। विविधता में एकता का अनूठा उदाहरण है यह। यह विविधता हमारी ताकत है। यह ताकत कमज़ोर नहीं पड़नी चाहिए।
फूलों के रंग भले ही अलग-अलग हों, पर बीज एक-से हैं, इसी मिट्टी से, इसी पानी से, यह बीज ऊर्जा लेते हैं। मनुष्यता के इस बीज की रक्षा करना हर भारतीय का कर्तव्य है। बुनियादी बात यह है कि हम सब मनुष्य हैं। हमारे भीतर की मनुष्यता जिंदा रहनी चाहिए। बुनियाद है यह मनुष्यता। इस बुनियाद को मज़बूत करना है। मज़बूत रखना है। एक शेर याद आ रहा है। पता नहीं किसका लिखा है, पर है बहुत उपयुक्त— ‘सब हिफाज़त कर रहे हैं मुस्तकिल दीवार की/ जबकि हमला हो रहा है मुस्तकिल बुनियाद पर।’ मुस्तकिल का मतलब होता है मज़बूत। इस मज़बूती को और मज़बूत करना ज़रूरी है। यह काम कहने से नहीं, करने से होगा। मौनी अमावस्या की रात को इलाहाबाद के संगम पर अनूठी पहल की गई। यह उदाहरण हर भारतीय को प्रेरणा देने वाला होना चाहिए— हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।