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असंभव भी संभव होता है सचेतना से

04:00 AM May 06, 2025 IST
असंभव भी संभव होता है सचेतना से
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माइंडफुलनेस (सचेतन) नए युग का मंत्र है, वह जादुई औषधि जो आपको अतीत के तमाम दुखों और कल्पित दुखद भविष्य की चिंताओं से दूर रख सकता है। बुद्ध ने 2,500 साल पहले कहा था ‘वर्तमान में जीओ, तमाम चिंताएं तिरोहित हो जाएंगी।’

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प्रदीप मैगज़ीन

मन और शरीर, दो ऐसे स्तंभ, जिन पर इंसान का वजूद टिका है। एक खिलाड़ी उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए चुने हुए खेल की मांगों के अनुसार अपने शरीर को परिपूर्ण बनाने में पूरा जीवन लगा देता है। मानव मन के असीम विस्तार में, ऐसा कोई लक्ष्य नहीं है जिसे प्राप्त न किया जा सके। कोई व्यक्ति पलक झपकने भर में आल्प्स के ऊपर से उड़ने या हिमालय पर विजय पाने या निराशा की गहराइयों में गिरने की कल्पना कर सकता है। ऐसा कहा जाता है कि अगर शरीर और मन एक सार हो जाएं, तो कोई भी बाधा, चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हो, उससे पार पाया जा सकता है।
दुनिया एक ऐसे सांचे की तरह है जिसमें मानव शरीर आकार लेता है और नए-नए विचार ढलते रहते हैं। यदि हम मान लें कि खेल जीवन का एक रूपक है तो हम महसूस करेंगे कि अगरचे मन और शरीर विपरीत उद्देश्यों से काम करेंगे, तो सफलता कभी हासिल नहीं हो सकती। खेल आपके भावनात्मक अनुकूलन की खामियों से निपटने में भी उतना ही कारगर है जितना कि आपके शारीरिक कौशल को परिपूर्ण बनाने में।
माइंडफुलनेस (सचेतन) नए युग का मंत्र है, वह जादुई औषधि जो आपको अतीत के तमाम दुखों और कल्पित दुखद भविष्य की चिंताओं से दूर रख सकता है। बुद्ध ने 2,500 साल पहले कहा था ‘वर्तमान में जीओ, तमाम चिंताएं तिरोहित हो जाएंगी।’ मैं नियमित रूप से एक बौद्ध ध्यान केंद्र जाया करता हूं, हैरानी की बात है कि वहां पर आने वालों में, युवा और बेचैन लोगों की संख्या उन लोगों की तुलना में अधिक होती है, जिनके अंदर उम्र जनित अनुभवों से अवसाद और असहायता बनती है। भविष्य का डर, ध्यान भटकाने वाले अंतहीन कारक और एक ऐसी दुनिया में जीना जिसमें मानवीय संपर्क बहुत कम है लेकिन वे व्यक्तिगत जान-पहचान विहीन सोशल मीडिया मित्र मंडल द्वारा चालित आभासीय दुनिया में विचरते हैं, यह सब उन्हें एक ऐसे रास्ते की तलाश करने के लिए मजबूर कर देता है, जो उन्हें उनके वर्तमान जीवन से नहीं मिलता।
स्थिरता एवं पूर्ण-एकाग्रता बनाने का प्रशिक्षण लेने की चाह में वहां आने वाले ऐसे अनेक युवाओं में एक पेशेवर गोल्फ खिलाड़ी भी था। वह खेल में अपनी कमियों से जूझ रहा था, जिसका संबंध उसके अस्थिर मन और एकाग्रता की कमी से था। उसे मोक्ष की तलाश नहीं थी, बल्कि वह तो अपने मन को नियंत्रित रखने के तरीके खोज रहा था, ताकि गोल्फ़ कोर्स पर अपनी पूरी क्षमता के अनुसार प्रदर्शन कर सके। कई सालों बाद मैं गेंदबाजों को बेतरह धुनने वाले और भारतीय क्रिकेट सबसे घातक बल्लेबाजों में से एक से मिला, जो अब खेल से सेवानिवृत्त हो चुका है और अपने जैसे अधिकांश लोगों की तरह अपना वक्त गोल्फ़ खेलने में बिताता है। कई लोग कहते हैं कि वह इतना अच्छा खेलता है कि गोल्फ का पेशेवर खिलाड़ी बन सकता है। मैंने उससे पूछा कि क्या उसने कभी पेशेवर गोल्फ़र बनने के बारे में सोचा? जवाब था ‘नहीं, मैं अपने गोल्फ़ का लुत्फ़ उठाना चाहता हूं। अब और दबाव नहीं झेलना चाहूंगा।’ टी-20 अंतर्राष्ट्रीय मैच में छह छक्के जड़ने वाले खिलाड़ी हों और दबाव की बात? सफलता की कीमत चुकानी पड़ती है।
आकांक्षी खिलाड़ियों को जितनी जरूरत तकनीकी कोचिंग की पड़ती है, उतनी ही आवश्यकता प्रशिक्षण से उन्हें दिमागी रूप से तैयार करने की भी होती है। इसके लिए ज़्यादा सही शब्द होगा- भावनात्मक कोचिंग। हमारी पांच इंद्रियां दुनिया के लिए हमारा प्रवेश द्वार हैं और हर व्यक्ति की अपनी एक अनूठी न्यूरोलॉजी होती है, जिसे मौखिक और गैर-मौखिक भाषा के ज़रिए व्यक्त किया जाता है। खिलाड़ियों को जिन भावनात्मक मुद्दों से जूझना पड़ता है, उनसे पार पाने के लिए न्यूरो लिंग्विस्टिक प्रोग्राम (एनएलपी) नामक एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण पद्धति, उनकी समस्याओं का हल इन संवेदी धारणाओं को अपने शोध के केंद्र में रखकर करती है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जो शरीर और मांसपेशियों की हरकतों से किसी व्यक्ति में बनने वाले अदृश्य आघात को बूझता है।
इस पद्धति का इस्तेमाल करने वालों में से एक हैं मेधावी और जानकारी से परिपूर्ण रुखसार सलीम, जो दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम में वंचित बच्चों के लिए के. अरुमुगम द्वारा आयोजित हॉकी कोचिंग कार्यक्रम में मदद कर रही हैं। अरुमुगम को भारत की 1975 विश्व कप जीत पर लिखी गई बेहतरीन हॉकी पुस्तक के लिए बेहतर जाना जाता है। रुखसार पहले बिजनेस जगत की पत्रकार थीं, जिन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बदला है, मानव व्यवहार पैटर्न को समझने के लिए एनएलपी में मास्टर्स कोर्स किया। वह कहती हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में न्यूरो-भाषा विज्ञान की एक अनूठी प्रोग्रामिंग होती है। इस कार्यक्रम के स्थापित तथ्यों में से एक सूक्ति है ‘भावनाएं मन (मस्तिष्क) में निवास करती हैं, भावनाएं आपकी मांसपेशियों में मौजूद होती हैं।’
उनके अनुसार, पांच इंद्रियों में से तीन -दृश्य, श्रवण और गतिज- किसी भी जानकारी को प्राप्त करने का पुष्ट और प्रमुख माध्यम हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास बाहरी वातावरण से जानकारी को ग्रहण करने की एक जन्मजात या अर्जित प्राथमिकता होती है (या तो संस्कृति से या अभ्यास के कारण)। ‘इसलिए एक अच्छा कोच सबसे पहले इस चीज़ की शिनाख्त करता है कि जानकारी प्राप्त कैसे हुई और वह खिलाड़ी को उस जानकारी को संसाधन के रूप में उपयोग करने और दबाव में अपने प्रदर्शन को अनुकूलित करने में, अनुपयोगी जानकारी को दरकिनार करने में मदद करता है। उदाहरण के लिए, विराट कोहली के मामले में, उनके शरीर की हरकतों में सहजता और बल्लेबाजी न करते वक्त भी मैदान में चारों ओर नज़र बनाए रखने की क्षमता, उनके अत्यधिक दृश्यशील एवं गतिज होने की ठोस संकेतक हैं।’
लेकिन कोई खिलाड़ी ऐसा हो सकता है जो चीखती-चिल्लाती भीड़ को देखकर असहज हो जाए और अत्यधिक दबाव महसूस करे। यह संभावना है कि दंगा-ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों की न्यूरोलॉजी अलग किस्म की बन जाती है, और वे हमेशा बाहर की ओर तकते रहते हैं, किसी संभावित खतरे की टोह लेने में। एक कोच का काम बाहरी और आंतरिक दुनिया के बीच संतुलन बनाना और जानने और करने के बीच के अंतर को कम करना है। मन और उसकी जटिलताएं और इसके परिणामवश बने व्यवहार के पैटर्न को समझना एक जीवन भर चलने वाला काम हो सकता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, समता और ज्ञान के उस अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई जीवन-काल की आवश्यकता होगी। खिलाड़ियों को उनकी इष्टतम क्षमता प्राप्त करने में मदद करने वाली हमारी सीमित परियोजना के लिए यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि हमें क्या प्रेरित करता है और क्या हमें सीमित बनाता है। जैसा कि रुखसार बताती हैं, हम अपनी सभी समस्याओं से छुटकारा नहीं पा सकते लेकिन हम उन्हें समझ सकते हैं और उनका समाधान कर सकते हैं।
जैसा कि रुखसार कहती हैं, ‘साहस डर की अनुपस्थिति नहीं है। यह इसे स्वीकार करने और इससे पार पाने की क्षमता है।’ यह एक उदारहण घिसा-पिटा लग सकता है लेकिन इसकी प्रासंगिकता समय सिद्ध है।

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लेखक नामी खेल पत्रकार हैं।

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