अवध की होली में गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत
आखिरी नवाब वाजिदअली शाह ने होली पर कई ठुमरियां लिखी हैं। उन्हें कृष्ण बनकर होली खेलने का शौक भी था। अपनी नवाबी के दौर में वे रासलीला की तर्ज पर ‘रहस’ का प्रदर्शन कराते, जिसमें वे कृष्ण बनते थे और उनकी चहेती बेगमें गोपियों की भूमिका निभाती थीं।
कृष्ण प्रताप सिंह
इस बहुलतावादी देश में, जैसे कई दूसरे त्योहारों के, वैसे ही होली और उससे जुड़ी ठिठोलियों के भी अनेक रंग हैं। कुछ परम्परा, आस्था व भक्ति से भरपूर हैं तो कुछ खालिस हास-परिहास, उल्लास और शोखियों के। कोई चाहे तो इन्हें ‘भंग के रंग और तरंग’ वाले भी कह ले। कई बार यह देखने वाले दांतों तले उंगली दबा लेते हैं कि ब्रज के बरसाना में जाकर ये रंग लट्ठमार हो जाते हैं तो अवध पहुंचकर गंगा-जमुनी।
अयोध्या में होली का हुड़दंग पांच दिन पहले रंगभरी एकादशी के उत्सव से ही आरंभ हो जाता है। नागा साधु हनुमानगढ़ी में विराजमान हनुमंतलला के साथ होली खेलते, फिर उनके निशान के साथ अयोध्या की पंचकोसी परिक्रमा पर निकल जाते हैं। यह परिक्रमा सारे मठों-मन्दिरों के रंगोत्सव में शामिल होने का निमंत्रण होती है। फिर तो सारा संत समाज सड़कों पर निकल आता है। सारे भेदभाव भूलकर पांच दिन रंगों के साथ भंग आदि की तरंग में भी डूबता उतराता रहता है।
यों, अवध में होली के रंगों की गिनती तब तक पूरी नहीं होती, जब तक उनमें उसकी गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत शामिल न की जाये। क्या गांव-क्या शहर, क्या गली-क्या मोहल्ले और क्या चौराहे, जलती होलिकाएं और रंगे-पुते चेहरों वाले हुड़दंग मचाते हुरियारे किसी को किसी भी बिना पर होली से बेगानगी बरतने का मौका नहीं देते।
इस गंगा-जमुनी तहजीब की नींव अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने अपनी तत्कालीन राजधानी फैजाबाद में रखी थी। 26 जनवरी, 1775 को उन्होंने फैजाबाद में ही अंतिम सांस भी ली। यों तो उन्हें कई ऐबों के लिए भी जाना जाता है, लेकिन मजहबी संकीर्णताएं उन्हें छूती भी डरती थीं। वर्ष 1775 में उनके पुत्र आसफउद्दौला ने राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित की, तो भी इस तहजीब का दामन नहीं छोड़ा। वे अपने सारे दरबारियों के साथ फूलों के रंग से होली खेला करते थे।
आसफउद्दौला की बेगम शम्सुन्निसा उर्फ दुल्हन बेगम को भी, जो दुल्हन फैजाबादी नाम से शायरी भी करती थीं, रंग खेलने का बड़ा शौक था। एक होली पर आसफुद्दौला शीशमहल स्थित दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो हुरियारों ने दुल्हन बेगम पर भी रंग डालने की ख्वाहिश जताई। तब बेगम ने अपने उजले कपड़े बाहर भेजे और हुरियारों ने उन पर जी भर रंग छिड़का। फिर वे रंग सने कपड़े वापस महल में ले जाये गये जहां बेगम उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुईं।
आसफउद्दौला के बाद के नवाबों में से कई को लोग उनके होली खेलने के खास अंदाज के कारण ही जानते हैं। नवाब सआदत अली खां के जमाने में होली का गंगा-जमुनी रंग तब और गाढ़ा हो गया जब उन्होंने होली के लिए राजकोष से धन देने की परम्परा डाली। आखिरी नवाब वाजिदअली शाह ने होली पर कई ठुमरियां लिखी हैं। उनको कृष्ण बनकर होली खेलने का शौक भी था। अपनी नवाबी के दौर में वे रासलीला की तर्ज पर ‘रहस’ का प्रदर्शन कराते थे जिसमें वे खुद कृष्ण बनते थे और उनकी चहेती बेगमें गोपियों की भूमिका निभाती थीं।
कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी इसे लेकर नाक-भौं भी सिकोड़ा करते थे, लेकिन उन्होंने उन्हें कभी कान नहीं दिया। आसफउद्दौला की ही राह पर चलते और कहते रहे- हम इश्क के बन्दे हैं मजहब से नहीं वाकिफ, गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या?
एक बार तो मुहर्रम का मातम भी उनको होली खेलने से नहीं रोक पाया था। दरअसल हुआ यह कि संयोग से होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ गए। फिर तो अंदेशा हुआ कि होली की खुशी और मुहर्रम के मातम में टकराव न हो जाये। इस अंदेशे के चलते लखनऊ के कई अंचलों में हुरियारों ने मोहर्रम वालों की भावनाओं का सम्मान करते हुए होली न खेलने का फैसला किया तो वाजिदअली शाह ने उन्हें इस सदाशयता का ऐसा सिला दिया कि कुछ न पूछिये। उन्होंने कहा, ‘अगर हिंदू मुसलमानों की भावनाओं का इतना सम्मान करते हैं कि उन्हें ठेस न पहुंचे, इसके लिए होली नहीं खेल रहे, तो मुसलमानों का भी फर्ज है कि वे हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करें।’
उन्होंने बिना देर किये ऐलान करा दिया कि अवध में न सिर्फ मुहर्रम के ही दिन होली मनाई जाएगी, बल्कि नवाब खुद उसमें हिस्सा लेने पहुंचेंगे। उन्होंने इस ऐलान पर अमल भी किया और सबसे पहले रंग खेलकर होली की शुरुआत की। उनकी एक प्रसिद्ध ठुमरी है : मोरे कन्हैया जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूंगी डटके, उनके पीछे मैं चुपके से जाके, रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के।
अंग्रेजों द्वारा बेदखली के बाद 1857 का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, उनके अवयस्क बेटे बिरजिस कद्र की ताजपोशी के बाद सूबे की बागडोर मां बेगम हजरत महल के हाथ आई, तो उन्होंने भी होली के इन गंगा-जमुनी रंगों को फीका नहीं पड़ने दिया।
आज भी लखनऊ में हुरियारे होली खेलते हुए मुस्लिम इलाकों से गुजरते हैं तो वहां उन पर इत्र छिड़का जाता और मुंह मीठा कराकर स्वागत किया जाता है। फिर तो फिजां में मुहब्बत का रंग ऐसे घुलता है कि किसी को अपना हिन्दू या मुसलमान होना याद ही नहीं रह जाता। इससे पहले वसंत पंचमी के दिन शहर के नुक्कड़ों पर होलिका दहन के लिए रेंडी के पेड़ (खंभ) गाड़े जाते और लकड़ियां जमा की जाती हैं तो इस काम में भी गंगा-जमुनी तहजीब अंगड़ाइयां लेती ही है। शायर सरशार सैलानी ने अपनी यह पंक्ति यकीनन, उन्हीं को लक्ष्य कर लिखी है : ‘चमन में इख्तिलात-ए-रंगो-बू से बात बनती है, हमीं हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो।’ यह भी कि होली कोई एकरंगी त्योहार नहीं है। लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले में स्थित संत हाजी वारिस अली शाह की दरगाह में हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा मिलकर जलाई और खेली जाने वाली सूफियाना मिजाज की होली के रंग भी कुछ कम निराले नहीं होते। कौमी एकता गेट पर फूलों के साथ चादर का जुलूस भी निकाला जाता है जिसमें ‘जो रब है, वही राम है’ का संदेश दिया जाता है।