अमेरिकी नीतियों से यूरोपीय बेचैनी की तार्किकता
अमेरिका फर्स्ट की नीति पर चलने वाले डोनाल्ड ट्रंप की यूक्रेन नीति ने यूरोपीय देशों में बेचैनी पैदा की है। यूरोपीय देशों को अहसास होना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत और व्यवहार में, राष्ट्रों के निजी हित सदा गठबंधनों पर हावी रहे हैं। हित स्थायी होते हैं जबकि सहयोगी वक्ती तौर पर सही, फिर भी अस्थाई होते हैं।
मनीष तिवारी
इस महीने की शुरुआत में म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन के 61वें संस्करण में अमेरिका के नव-नियुक्त उपराष्ट्रपति जेम्स डेविड वेंस द्वारा यूरोपियनों को लगाई मौखिक फटकार से यदि उन्हें सदमा न भी लगा हो तो भी हक्के-बक्के तो हुए ही हैं। वेंस ने लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति यूरोपीय लोगों की मौलिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाया, जिसको लेकर उनका तर्क था कि यह अमेरिका-यूरोपीय सहयोग तंत्र की नींव है। भाषण खत्म होते-होते होटल बेयरिशर हॉफ के सम्मेलन कक्ष के फर्श पर यूरोपियन रणनीतिक सिराज बिखर चुका था। यूरोप में चल रहे वर्तमान खेल के बारे में वेंस द्वारा की गई कटु आलोचना पर यूरोप के कुछ नेताओं ने तगड़ी असहमति जताई।
सवाल है कि यूरोपीय लोग हक्के-बक्के क्यों हुए, तो इसके लिए यूरोप के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका के व्यवहार के पिछले सौ सालों का इतिहास को बांचना पड़ेगा, जो बताता है कि अमेरिका ने सदा अपने ‘निज हित’ में काम किया है, जिसे वह अपनी सुविधा के अनुसार जब चाहे ‘अमेरिकी अपवाद-वाद’ के रूप में वर्णित करता है।
प्रथम विश्व युद्ध 28 जुलाई, 1914 को शुरू हुआ था, जिसकी शुरुआत ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य के युवराज आर्कड्यूक फ्रांज़ फर्डिनेंड और उनकी पत्नी सोफी की हत्या से हुई थी, जो एक बोस्नियाई सर्ब व्यक्ति द्वारा की गई थी। हालांकि, यह एक यूरोपीय युद्ध था, जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का ट्रिपल एंटेंटे नामक गठजोड़ ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी और इटली वाले ट्रिपल एलायंस से लड़ा, और पहले वाले गुट ने अमेरिकियों को अपना साथ देने का अनुरोध किया।
जैक सोनियन विचारधारा वाले सीनेटरों द्वारा अड़ंगा लगाने से राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के नेतृत्व वाले संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसे यूरोपीय राजशाहियों के बीच युद्ध मानकर पहले इसका हिस्सा बनने से इनकार कर दिया था। लेकिन इसके केवल ढाई साल बाद, 7 अप्रैल, 1917 को, संयुक्त राज्य अमेरिका ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी, क्योंकि जर्मनों ने उत्तरी अटलांटिक महासागर में अपने अप्रतिबंधित पनडुब्बी युद्ध का दायरा बढ़ा दिया, जिससे अमेरिकियों को भारी जानी-माली नुकसान हो रहा था।
इसमें एक अतिरिक्त उत्प्रेरक रहा, तत्कालीन जर्मन विदेश मंत्री आर्थर ज़िमरमैन द्वारा प्रेषित एक संदेश, जिसे बाद में कुख्यात ‘ज़िमरमैन टेलीग्राम’ का नाम मिला। इसमें मैक्सिकन सरकार से वादा किया गया कि जर्मनी मैक्सिको को वह क्षेत्र वापस पाने में मदद करेगा, जो वह 1846-1848 के मैक्सिकन-अमेरिकी युद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका को हार चुका था। इस सहायता के बदले में, जर्मनी ने युद्ध में मैक्सिको का समर्थन मांगा। यह कहना राष्ट्रपति जेम्स मोनरो और उनके विदेश मंत्री जॉन क्विंसी एडम्स द्वारा परिकल्पित उस ‘मोनरो सिद्धांत’ से सीधा टकराव था, जिसे 2 दिसंबर, 1823 को अमेरिकी संसद को मोनरो के संबोधन के दौरान व्यक्त किया गया था। इसमें कहा गया कि पश्चिमी गोलार्ध का इलाका, खासकर अमेरिकी महाद्वीप की तरफ, संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रभाव क्षेत्र है और यूरोपियनों को हमारे इस विशेषाधिकार वाले क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार, जब केवल अपने हितों पर खतरा बनता देखा, तभी संयुक्त राज्य अमेरिका यूरोपीय युद्ध में दाखिल हुआ।
लीग ऑफ नेशन्स में 28 जून 1919 को राष्ट्रपति विल्सन की पहलकदमी से बनी ‘वर्सायलेस की संधि’ टूट गई, जब फरवरी 1933 में जापानियों ने किनारा कर लिया और इसके आठ महीने बाद जर्मनी भी पीछे हट गया, तब संयुक्त राज्य अमेरिका एक बार फिर से अलग-थलग पड़ गया, जबकि एडोल्फ हिटलर और उसके नाज़ियों ने 1938 के बाद से यूरोप के इलाके और देशों को हड़पते गए, जिसकी शुरुआत उसी वर्ष मार्च में ऑस्ट्रिया का एंस्क्लस कब्जाने से हुई।
यहां तक कि जब 1940 के मई से नवंबर माह के बीच ग्रेट ब्रिटेन अपने सबसे बुरे वक्त में अकेला खड़ा था, तब भी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने 1939 के तटस्थता अधिनियम और 1934 के जॉनसन अधिनियम का हवाला देते हुए उसकी मदद करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। हालांकि बाद में कुछ नवीन तरीके खोजे गए, जब द्वितीय विश्व युद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका को औपचारिक रूप से प्रवेश 7 दिसंबर, 1941 को पर्ल हार्बर पर हुए जापानी हमले के बाद करना पड़ा। जापान के खिलाफ युद्ध शुरू करने की घोषणा 8 दिसंबर 1941 को ही की गई थी। तीन दिन बाद जब जर्मनी और इटली ने भी 11 दिसंबर 1941 को अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी, तब जाकर इसने भी जवाबी ऐलान किया। निष्कर्ष यह है, बहुत संभव है कि जब यूरोप गेस्टापो और शुट्ज़स्टाफेल के गुंडों के अधीन कराह रहा था, तब भी अमेरिका ने तटस्थता बनाए रखी होती अगर जापानियों ने उसपर हमला न किया होता।
आगे कुछ दशकों बाद, एक दशक तक चली लड़ाई के बाद, अमेरिका को 30 अप्रैल, 1975 को वियतनाम से वापसी करनी पड़ी, एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक खर्च होने और 58,000 से अधिक का जानी नुकसान करवाने के बाद उसने दक्षिण वियतनाम में अपना सैन्य अभियान समाप्त किया। यह एक और उदाहरण है कि कैसे बदला हुए घरेलू माहौल इसकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं पर भारी पड़ा। वहां इस लड़ाई में अमेरिका का साथ देने वाले दक्षिण वियतनामी लोगों में अधिकांश को उत्तरी वियतनामी ‘साथियों’ के रहमो-करम पर छोड़कर वे निकल आए।
इसी प्रकार, इस झूठे आधार पर कि इराक के पास सामूहिक विनाश के हथियार हैं, नौ साल वहां युद्ध चलाने के बाद 18 दिसंबर 2011 को अमेरिका उस देश से बाहर निकला। इसके तुरंत बाद इराक और सीरिया के इलाके में इस्लामिक स्टेट या आईएसआईएस का उदय हुआ। इराक का युद्ध, जिसमें दस लाख अमेरिकी फौजी सैन्य अभियान का हिस्सा थे, इससे अमेरिकी खजाने को 2.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की चपत लगी और कुल 4,61,000 लोग मारे गए। दो दशक बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि उस हस्तक्षेप की असल वजह क्या थी?
इसी तरह अगस्त, 2021 में अफ़गानिस्तान से अमेरिका की वापसी हुई और वह देश उसी तालिबान को सौंप दिया, जिसको उसने 2001 में खदेड़ा था। यह दो दशकों तक वहां किए निवेश की बर्बादी थी जिसके जरिये लोकतांत्रिक मूल्यों व मानवाधिकारों की रक्षा का लक्ष्य था। यह पलायन भी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं पर भारी पड़े घरेलू एजेंडे का नवीनतम उदाहरण था। अफ़गान युद्ध में अमेरिका को 2.313 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ और कुल 2,43,000 लोग मारे गए।
अब जबकि डोनाल्ड ट्रम्प ने यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के मामले में अपना रुख पूरी तरह बदल लिया है, तो यूरोपियन क्योंकर अपने छद्म आक्रोश में उद्वेलित हों। सदियों तक खुद साम्राज्यवादी रहने और लड़ाई के आदी होने के कारण उन्हें यह अच्छी तरह पता होना चाहिए था कि किसी और के बंदरगाह में जबरदस्ती डाला आपका लंगर सुरक्षित नहीं रह सकता।
समय आ गया है कि यूरोपियन अपनी सुरक्षा संरचना खुद तैयार करें और इसके लिए कार्डिनल रिचेल्यू कीरायसन डी’एटैट नामक समझदारी भरी चेतावनी सूक्ति को याद रखें ‘प्रत्येक राष्ट्र के लिए अपने राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होते हैं और वह उनके लिये कार्य करता है’, और साथ ही उन्हें ह्यूगो ग्रोटियस के दिए ‘शक्ति का संतुलन बुद्धिमत्ता से’ वाले सिद्धांत को भी याद रखना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत और व्यवहार में, राष्ट्रों के निजी हित सदा गठबंधनों पर हावी रहे हैं क्योंकि हित स्थायी होते हैं जबकि सहयोगी वक्ती तौर पर सही, फिर भी अस्थाई होते हैं।
लेखक सांसद और पूर्व केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं।