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अभिव्यक्ति की आजादी व नैतिकता के यक्ष प्रश्न

04:00 AM Mar 12, 2025 IST
अभिव्यक्ति की आजादी व नैतिकता के यक्ष प्रश्न
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सर्वोच्च न्यायालय नैतिकता का संरक्षक नहीं है। इसका प्राथमिक कर्तव्य संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखना है, जिसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी शामिल है। लोकलुभावन भाषण देने लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा जरूरी नहीं है।
संजय हेगड़े
रणवीर इलाहाबादिया मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का बर्ताव झलक है कि किस तरह न्यायपालिका को रस्सी पर संतुलन साधकर चलना चाहिए–नैतिकता को लेकर बने हंगामे और संवैधानिक औचित्य के बीच। सोशल मीडिया के इस ‘इन्फ्लुएंसर’ को अंतरिम राहत एक कठिन सुनवाई के बाद मिली, जिसके केंद्र में नैतिकता को लेकर बना क्षोभ था। इलाहाबादिया की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने का न्यायालय का निर्णय सही था। फिर भी, जिस तरह से मामला आगे बढ़ा, उससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
इलाहाबादिया, एक जानी-मानी सोशल मीडिया हस्ती हैं, उन्हें इंडियाज गॉट लेटेंट शो में की गई अपनी टिप्पणियों के कारण अनेक पुलिस प्राथमिकियों का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि, उनकी टिप्पणियों का उद्देश्य महज हंसाना था, लेकिन इसने पूरे देश में रोष खड़ा कर दिया। मीडिया घरानों और राजनेताओं की नाराजगी ने आग में घी डालने का काम किया। लेकिन जैसा कि उनके वकील अभिनव चंद्रचूड़ ने सही तर्क दिया है ः कानूनी सवाल यह नहीं है कि क्या इलाहाबादिया की भाषा अरुचिकर थी- जिसे हर कोई, जिसमें खुद उनके अपने वकील भी शामिल हैं, मानते हैं कि यह थी- बल्कि यह है कि क्या यह भारतीय कानून के तहत एक आपराधिक जुर्म बनता है।
हालांकि, अदालत ऐसे सूक्ष्म अंतरों पर विचार करने के मूड में नहीं दिखी। सुनवाई के पूरे समय, इसने स्पष्ट रूप से अपनी नाराज़गी व्यक्त किए रखी, इलाहाबादिया द्वारा बरती भाषा को ‘गंदी’, ‘विकृत’ और इसे इलाहाबादिया के दिमाग से निकली ‘उल्टी’ तक बताया। एक बिंदु पर, न्यायाधीश ने वकील चंद्रचूड़ से पूछा : ‘क्या आप इस तरह की भाषा का बचाव कर रहे हैं?’ हालांकि, यह सवाल भले ही जुमला हो, लेकिन बचाव पक्ष के वकील की भूमिका को मूलतः गलत समझने की तरफ इशारा करता है : बात वकील की अपने मुवक्किल के बोलों से सहमत होने या न होने की नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि गलीज से गलीज व्यक्ति तक को भी कानून के तहत उचित सुनवाई का मौका मिले।
सर्वोच्च न्यायालय नैतिकता का संरक्षक नहीं है। इसका प्राथमिक कर्तव्य संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखना है, जिसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी शामिल है। लोकलुभावन भाषण देने लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा जरूरी नहीं है। संवैधानिक संरक्षण की जरूरत केवल नागवार, अलोकप्रिय अभिव्यक्ति पर लागू होती है, जब इसको लेकर मुकदमा चले।
चंद्रचूड़ ने कानूनी सिद्धांतों पर ध्यान पुनः केंद्रित रखने के प्रयास में अपूर्व अरोड़ा मामले में दिए फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि गाली-गलौज अपने आप में अश्लीलता नहीं है। उस मामले में न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि इम्तिहान यह है कि क्या कोई कथन लम्पटता में आता है और उस सीमा को पार करता हो कि आपराधिक अश्लीलता बन जाए।
लेकिन अदालत पर इसका कोई असर नहीं हुआ और इसने पूछा, ‘यदि यह अश्लीलता नहीं है, तो फिर अश्लीलता क्या है?’ न्यायालय नैतिक शून्यता में काम नहीं करते, लेकिन उन्हें नैतिकता पर निजी धारणा को कानूनी तर्क पर हावी भी नहीं होने देना चाहिए। यह पूछकर कि क्या अरोड़ा मामला आपको ‘जो चाहे बकने का लाइसेंस देता है’, न्यायालय ने शालीनता को लेकर अपनी व्यक्तिगत समझ को मुक्त अभिव्यक्ति की सुरक्षा से अलग रखने में अनिच्छा को दर्शाया है।
यह नोक-झोंक मुझे अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पॉटर स्टीवर्ट द्वारा जैकोबेल्लिस बनाम ओहायियो राज्य (1964) मामले में अश्लीलता पर अपनी निजी धारणा की अंतिम सीमा के इम्तिहान को लेकर लिखे गए शब्दों की याद दिलाती है। ‘प्रस्तुत मामले में पेश सामग्री अश्लील क्यों नहीं है’, इसकी व्याख्या करते हुए स्टीवर्ट ने लिखा ‘आज मैं उन सामग्रियों की किस्मों को परिभाषित करने का प्रयास और नहीं करूंगा, जिन्हें संक्षेप में मैं ठेठ यौन-सामग्री की परिधि में गिनता हूं और शायद मैं कभी भी समझदारी से ऐसा करने में सफल नहीं हो पाऊं। लेकिन जब मैंने इसको देखा, तो मुझे लगता है कि मामले में प्रस्तुत रील वैसी नहीं है।’ इस पर स्टैंड-अप कॉमेडियनों ने चुटकी ली कि अश्लीलता वही, जो किसी जज को उत्तेजित करे। भारतीय कॉमेडियनों को नेक सलाह है कि वे यह न कहें कि अश्लीलता वही, जो किसी जज को नाराज़ करे।
सुनवाई का सबसे परेशान करने वाला पहलू यह था कि अदालत ने इलाहाबादिया के खिलाफ़ मौत की धमकियों को लगभग खारिज कर दिया। जब चंद्रचूड़ ने कहा कि उनके मुवक्किल को धमकियां मिल रही हैं, तो इस पर न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने टिप्पणी की, ‘यदि आप इस तरह की बातें कहकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं, तो ऐसे अन्य लोग भी हो सकते हैं जो धमकियां देकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते हों’।
इलाहाबादिया के शब्द चाहे कितने भी आहत करने वाले क्यों न हों, मौत की धमकियों को कभी भी ‘इसी सज़ा का हकदार है’ वाले तयशुदा हश्र के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए न ही देखा जा सकता है। अंततः खंडपीठ ने एक नोटिस जारी किया और प्रतिवादियों से जवाब मांगा, इलाहाबादिया को अंतरिम राहत प्रदान की गई। आखिरकार, यह सही निर्णय रहा। हालांकि अदालत ने अनिच्छा से सही, यह माना कि बोलों की आपत्तिजनक प्रकृति के बावजूद, कानूनी तौर पर यह आपराधिक श्रेणी में तब होता यदि तीव्रता का स्तर और ज्यादा होता।
इंडियाज गॉट लेटेंट और इस शो की प्रकृति – जो केवल भुगतान करके देखा जा सकने वाला वयस्क चैनल शो है– इस संदर्भ के बारे में एक महत्वपूर्ण बिंदु को उठाती है। ऐसा लगता है कि न्यायालय को भान है कि जिस क्लिप के कारण आक्रोश बना, वह संदर्भ (वयस्क चैनल) से बाहर लीक होने के बाद हुआ, लेकिन इस जानकारी ने सुनवाई में बहुत कम भूमिका निभाई। जबकि इसका संज्ञान लिया जाना चाहिए था। मुक्त अभिव्यक्ति के मामलों में संदर्भ बहुत गहरा मायने रखते हैं, और न्यायालयों को भीड़ द्वारा हांके गए नैतिक वितंडे से सावधान रहना चाहिए।
इलाहाबादिया मामला न्यायालयों द्वारा नाजुक संतुलन बनाए रखने की दरकार की याद दिलाता है। न्यायाधीश भी इंसान हैं। अन्यों की तरह उन्हें भी क्षोभ, गुस्सा और नैतिकता पर चोट महसूस हो सकती है। लेकिन उनका काम इन भावनाओं में बहकर नहीं चलता- उन्हें निर्लिप्त होकर कानून को निष्पक्ष रूप से बनाए रखना है, खासकर जब जनता की राय कुछ और मांग करे।
अंतरिम राहत प्रदान करते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने आखिरकार वही किया जो वह संवैधानिक रूप से करने के लिए बाध्य था- व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा। लेकिन जिस ढंग से उसने यह किया, वह एक मिश्रित संकेत देता है : न्यायपालिका आपकी रक्षा करेगी, लेकिन आपको शर्मिंदा करने के बाद, और यह स्पष्ट करने के बाद कि आपके अधिकारों का सम्मान अनिच्छा से किया जा रहा है, वह भी आप पर अपनी नैतिक श्रेष्ठता स्थापित करने के बाद।
संवैधानिक न्यायालय इस तरह से काम नहीं करते। सर्वोच्च न्यायालय की मौजूदगी इस वास्ते है कि अलोकप्रिय, आपत्तिजनक और यहां तक कि विकृत लोगों को भी अपने बचाव का मौका मिल सके- क्योंकि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी का सार यही है। उम्मीद है कि जैसे-जैसे यह मामला आगे बढ़ेगा, न्यायालय को याद रहेगा कि उसकी भूमिका समाज को अश्लीलता से मुक्त करने की नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि नैतिकता नहीं, कानून ही उसका मार्गदर्शक सिद्धांत बना रहे।
लेखक सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।
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