अब तकनीक बदलने लगी है युद्ध की तकदीर
मौजूदा समय में तकनीक और विज्ञान की तरक्की की बदौलत युद्धों के नियम और शैलियां बदल गई हैं। जंग के दौरान बड़ी तादाद में सैनिक मोर्चे पर तैनात हो या सैनिक आमने-सामने की जंग लड़ें, इसके आधार पर हार-जीत का फैसला होना जरूरी नहीं। चाहे हमला करना हो या फिर मिसाइलों-ड्रोन्स से देश का बचाव करना हो, तकनीक असरदार भूमिका निभा रही है। हाल ही में पाकिस्तान पर हुआ ऑपरेशन सिंदूर इसका ताजा उदाहरण है।
डॉ. संजय वर्मा
युद्धों का इतिहास बताता है कि कोई भी जंग सबसे पहले मनोवैज्ञानिक स्तर पर लड़ी जाती है। खास तौर से सैनिकों में यह मनोबल उनके प्रशिक्षण, उन्हें प्रदान किए गए हथियारों और उनके देश की हैसियत के आधार पर विकसित होता है। लेकिन तकनीक और विज्ञान की तरक्की की बदौलत युद्धों के नियम और शैलियां बदल गई हैं। अब जरूरी नहीं रहा कि किसी जंग में सैनिकों की भारी तादाद किसी मोर्चे पर तैनात हो। या फिर सैनिक खुद आमने-सामने की जंग लड़ें, जिसके आधार पर हार-जीत का फैसला हो। बल्कि अब इसमें तकनीक की भूमिका सबसे अहम और प्राथमिक हो गई है। चाहे हमला करना हो या फिर दुश्मन की भेजी मिसाइलों-ड्रोन्स से खुद का बचाव करना हो, आज युद्धों में तकनीक सबसे असरदार और सटीक भूमिका निभा रही है। ताजा मिसाल 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में आतंकवादियों के हाथों 26 लोगों की निर्मम हत्या के बाद 6-7 मई की दरम्यानी रात भारत की ओर से, इस घटना के लिए जिम्मेदार पाकिस्तान और पाक-कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में की गई कार्रवाई है। भारत ने पाकिस्तान के जिन 9 स्थानों पर मौजूद आतंकी ढांचों पर हवाई हमला किया, उसमें अत्याधुनिक तकनीक से विकसित हथियारों (मुख्यतः मिसाइलों और ड्रोन) का ही इस्तेमाल किया गया। यही नहीं, सटीक हमले से बौखलाए पाकिस्तान ने 7 और 8 मई, 2025 को भारतीय सीमा में जो मिसाइलें छोड़ीं और ड्रोन भेजे, प्रायः उन सभी को भारत ने तकनीक के बल पर नाकाम किया। दोनों ही मामलों में साबित हुआ कि परखी गई उन्नत तकनीक के आधार पर कैसे दुश्मन के ठिकानों को नेस्तनाबूद किया जा सकता है और उसकी कार्रवाई से कितनी सटीकता से बचाव संभव है।
निश्चय ही, विज्ञान और तकनीक ने युद्धों को बदल दिया है। इसे भारत-पाकिस्तान के हालिया संघर्ष के उदाहरणों को देखना होगा। पहलगाम हमले के दोषी आतंकियों के पाकिस्तान और पीओके में मौजूद ठिकानों पर 7 मई रात भारतीय सेना ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत जो कार्रवाई की, उसमें खासकर न तो हमारे सैनिकों ने और न ही लड़ाकू विमानों ने आक्रमण के लिए नियंत्रण रेखा पार की। इस आक्रमण के लिए हवित्ज़र और धनुष तोपों, कामिकाजी नामक आत्मघाती ड्रोन, लंबी दूरी की मारक क्षमता वाले आधुनिक हथियारों के अलावा युद्धक विमानों- राफेल, मिराज-2000 और सुखोई-30 से स्कैल्प मिसाइलों और स्पाइस-2000 नामक बमों का इस्तेमाल किया गया। दावा है कि दागे गए ज्यादातर बम प्रेसिजन गाइडेड आर्टिलरी एम्युनिशन से लैस थे। नियंत्रण रेखा पार किए बिना अपनी सीमा से ही आतंकी ढांचों को ध्वस्त करने की इस कार्रवाई में दर्जनों आतंकवादी मारे जाने और लश्करे-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिज्बुल के मुख्यालय ढहने की तस्वीरें खुद पाकिस्तानी मीडिया ने प्रसारित कीं। हालांकि यह सटीक कार्रवाई आतंकी ढांचों और आतंकवादियों के खिलाफ थी, लेकिन पाकिस्तानी सरकार ने इसे आम नागरिकों पर हमला बताया और 8 मई को भारतीय सीमा पर गोलाबारी के अलावा लड़ाकू विमानों, ड्रोन और मिसाइलों से हमला किया। इनमें से भारत के पुंछ में एक दर्जन से ज्यादा निर्दोष नागरिकों की जान गई।
प्रभावी एस-400 सिस्टम
जम्मू-अमृतसर से लेकर राजस्थान के जैसलमेर तक सीमा पार कर आई मिसाइलें, ड्रोन और लड़ाकू विमान भारत की अत्याधुनिक बचाव प्रणाली की सक्रियता के कारण नाकाम हो गए। इन प्रणालियों में जिसे सबसे ज्यादा असरदार माना गया है, वह रूस से 2018 में खरीदा गया एस-400 सिस्टम है जो असल में लंबी दूरी यानी 500 किलोमीटर दूर से आ रहे ड्रोन, बैलेस्टिक मिसाइल या लड़ाकू विमानों का समय रहते पता लगाकर उन्हें हवा में ही नष्ट करने वाला लॉन्ग रेंज इंटरसेप्टर है। दावा है कि इसकी तीन सक्रिय यूनिटें भारत के पास हैं, जो अलग-अलग स्थानों पर तैनात हैं। यह इंटरसेप्टर चार चरणों में काम करता है। पहले चरण में इसका ट्रांसपोर्ट इरेक्टर लॉन्चर नजदीक आ रहे ड्रोन या मिसाइल का पता लगाता है। दूसरे चरण में इसका सर्विलांस रेडार ड्रोन आदि की दूरी व गति का आकलन कर कमांड वाहन को उसे रोकने का निर्देश देता है। तीसरे चरण में कमांड और कंट्रोल वाहन दुश्मन के ड्रोन या मिसाइल की लोकेशन तय कर उसे मिसाइल से मारने के निर्देश देता है और चौथे चरण में गाइडेंस रेडार टारगेट पर तेजी से मिसाइल छोड़ता है। यह एक ही समय में कई ड्रोन या मिसाइलों का पता लगाकर उन्हें हवा में ही नष्ट कर डालती है। लेकिन भारत सिर्फ एस-400 पर ही आश्रित नहीं है। इसके अलावा हमारे देश के पास मध्यम दूरी का इंटरसेप्टर- एमआरएसएएम भी है जो 70 किलोमीटर रेंज में ड्रोन आदि को हवा में तबाह कर डालता है। साथ ही स्वदेशी शॉर्ट रेंज इंटरसेप्टर – आकाश है जो 25-30 किमी की रेंज में एक साथ चार लक्ष्यों (टारगेट) को हवा में नष्ट कर सकता है। जमीन से हवा में मार करने वाला स्पाईडर नामक मिसाइल सिस्टम कम ऊंचाई पर उड़ रहे ड्रोन या मिसाइल को नष्ट कर सकता है। रूस से हासिल किया गया क्लोज रेंज इंटरसेप्शन (इग्ला-एस) सिस्टम भी है, जो लड़ाकू विमान, ड्रोन या मिसाइल को 5-6 किमी की रेंज में नष्ट करने में सक्षम है। बचाव की इन आधुनिक तकनीकों में हालांकि विश्व स्तर पर अमेरिका के थाड (टर्मिलन हाई अल्टीट्यूड एरिया डिफेंस), इस्राइल की डेविड्स स्लिंग और एरो प्रणाली तथा आयरन डोम, अमेरिका की जीएडी व एजिस कॉन्बैट प्रणाली, रूस की एस-500 प्रोमेतेई और चीन की एचक्यू-19 और एचक्यू-22 प्रणालियों का नाम भी लिया जाता है। लेकिन चीनी प्रतिरक्षा प्रणाली की नाकामी दुनिया ने हाल में देखी, जब इसका उपभोक्ता देश पाकिस्तान इनके बल पर भारतीय ड्रोन और मिसाइलों को रोकने में असफल रहा।
खुद की हो उत्पादन क्षमता
आधुनिक युद्धक हथियारों के लिए हमेशा दूसरे देशों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। जरूरी है, भारत खुद ऐसी तकनीकों, युद्धक विमानों, ड्रोन और हथियारों का विकास करे जिन्हें जरूरत के अनुसार बड़ी संख्या में बनाया-तैनात किया जा सके। जैसे, हाल ही (13 अप्रैल 2025) में भारत के डीआरडीओ (डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन) ने देश के पहले स्वदेशी हाई-एनर्जी लेजर वेपन का सफल परीक्षण किया है जो फिलहाल पांच किलोमीटर के हवाई दायरे में मौजूद ड्रोन आदि का पता लगाकर उन्हें भस्म कर सकता है। एमके-2 ए नामक इस सिस्टम की फिलहाल क्षमता 30 किलोवॉट ही है, इससे छोटे ड्रोन हवा में नष्ट किए जा सकेंगे। लेकिन भविष्य में तीन सौ किलोवॉट क्षमता वाले सूर्या नामक जिस लेज़र हथियार को विकसित करने की योजना पर काम कर रहा है, वह 20 किलोमीटर के हवाई क्षेत्र में मौजूद ड्रोन को नष्ट कर सकेगा। यह सिस्टम प्रकाश की गति से दुश्मन के ड्रोन या वॉरहेड को सटीकता के साथ लेज़र किरणें फेंककर सेकंडों में नष्ट कर सकता है या उसे अंधा बना सकता है। दावा है, यह लेज़र हथियार लड़ाकू विमानों, युद्धपोतों और उपग्रहों तक में लगाया जा सकता है। अमेरिका, रूस और चीन के बाद ऐसा लेज़र हथियार विकसित करने वाला भारत दुनिया का पांचवां देश बताया जाता है। इस तरह के ‘एयरबॉर्न लेज़र प्रोजेक्ट’ के बारे में सबसे पहले दशकों पहले अमेरिका में सोचा गया था जब वर्ष 2008 में बुश प्रशासन ने अंतरिक्ष में हथियारों की तैनाती पर एक रिपोर्ट में कहा था कि इससे न सिर्फ अमेरिका अपनी सैन्य क्षमता बढ़ा सकता है, बल्कि दूसरे देशों को अंतरिक्ष में बढ़त लेने से रोक सकता है। यह योजना उस मिसाइल प्रतिरक्षण प्रणाली की योजना का हिस्सा बताई गई थी, जिसमें दुनिया में कहीं पर भी मिसाइलें दाग सकने और अपनी ओर आ रही मिसाइलों को मार्ग में ही नष्ट करने की क्षमता विकसित करने को कहा गया था। बताते हैं कि अमेरिका ने लंबे समय तक जिस ‘एयरबॉर्न लेज़र प्रोजेक्ट’ पर काम किया है, वह कई तरह के हथियारों के बारे में था। इस बारे में यहां तक कहा गया था कि अंतरिक्ष में एटम बम रखे जा सकते हैं। वहां ऐसे उपकरण तैनात हो सकते हैं, जो लेज़र किरणें फेंककर सब कुछ तबाह कर सकते हैं। पार्टिकल बीम, कायनेटिक किल वैपन्स और मिसाइलों के अलावा और भी अनेक हथियार हैं, जो अंतरिक्ष से कहर बरपा सकते हैं। इनमें अपारंपरिक श्रेणी के ‘फार आउट वैपन’ कहलाने वाले स्पेस बग्स, स्पेस हैकर्स, ई-बम, प्रोपल्शन सिस्टम, स्पेस फाइटर, एलियन टेक्नोलॉजी और प्लाज्मा वैपंस तक शामिल हैं।
अंतरिक्ष से जंग
सैद्धांतिक तौर पर कोई भी देश अंतरिक्ष के रास्ते जंग नहीं छेड़ सकता। क्योंकि अमेरिका, रूस और चीन आदि देशों ने 1967 की उस बाह्य अंतरिक्ष संधि पर दस्तखत कर रखे हैं, जिसके मुताबिक वे पृथ्वी की कक्षा में या उससे बाहर अंतरिक्ष में हथियारों से लैस कोई भी यान या रॉकेट नहीं भेज सकते। लेकिन इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोई देश अंतरिक्ष में या अंतरिक्ष की ओर से पृथ्वी पर अपने विनाशक हथियारों का प्रयोग कर बैठे। बल्कि गाहे-बगाहे ऐसा प्रयोग करके ये देश अंतरिक्ष से लड़ी जाने वाली जंगों की तैयारी संबंधी अपनी ताकत का अंदाजा देते रहे हैं। जैसे साल 2008 में अमेरिका ने अंतरिक्ष से बेकाबू होकर गिर रहे अपने जासूसी उपग्रह को इंटरसेप्टर मिसाइल से मार गिराया था, तो दुनिया में बड़ी सनसनी मची थी। तब अमेरिका ने बहाना बनाया था कि धरती की तरफ बढ़ते उस कचरा बन गए उपग्रह को अंतरिक्ष में नष्ट करना इकलौता उपाय था। वह अनियंत्रित होकर आबादी पर गिर सकता था। लेकिन तब अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी रूस ने अमेरिकी कार्रवाई पर सवाल खड़े किए थे कि अमेरिका अंतरिक्ष युद्ध की अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत अपने अंतरिक्षीय हथियारों का परीक्षण करना चाहता था। बाद में ऐसे ही आरोप खुद रूस पर लगे। नवंबर 2019 में स्पेस की कक्षा में स्थापित किए गए रूसी जासूसी उपग्रह कॉस्मॉस-2542 को लेकर अमेरिका ने आरोप लगाया था कि इस उपग्रह से जुलाई, 2020 में मिसाइल जैसी कोई चीज निकली जो एक अन्य रूसी उपग्रह के पास से होकर गुजर गई। अमेरिका ने इस चीज को एक इन-ऑर्बिट एंटी-सैटेलाइट मिसाइल बताया था। आरोप लगाया कि रूस अंतरिक्ष का सैन्यीकरण कर रहा है। रूस ने सफाई दी थी कि यह एंटी-सैटेलाइट मिसाइल नहीं, बल्कि उपग्रह कॉस्मॉस-2542 के अंदर से निकला एक अन्य छोटा उपग्रह था। अब तक दुनिया के चार देश- अमेरिका, रूस, चीन और भारत अंतरिक्ष में एंटी-सैटेलाइट मिसाइल तकनीक को लेकर अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन कर चुके हैं। भारत ने वर्ष 2019 में ‘मिशन शक्ति’ के तहत अंतरिक्ष में 300 किलोमीटर दूरी पर स्थित लो-अर्थ ऑर्बिट (एलइओ) सैटेलाइट को मार गिराया था। रक्षा वैज्ञानिकों का मत है कि इस तरह भारत ने अंतरिक्ष में युद्ध की आशंकाओं के मद्देनजर प्रतिरोधक शक्ति हासिल कर ली थी। यानी यदि कोई देश हमारे उपग्रहों को निशाना बनाएगा तो भारत अंतरिक्ष में जवाबी कार्रवाई कर सकता है। चीन ने तो 2007 में ही अंतरिक्ष में 800 किमी ऊंचाई पर अपने उपग्रह को नष्ट कर इस क्षमता का प्रदर्शन किया था। प्रश्न है, इसकी शुरुआत कैसे हुई और ऐसे अंतरिक्ष युद्ध की आशंका कितनी है। बताते हैं इसका सपना सबसे पहले 1983 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड रीगन ने देखा था। रीगन चाहते थे कि पृथ्वी पर जो युद्ध होते हैं, उन पर अंतरिक्ष में तैनात सैनिक उपग्रहों और उपकरणों से इस तरह नियंत्रण पाया जाए कि अमेरिका और उसके मित्र देश हमेशा बढ़त पा सकें। हालांकि करीब 13 साल तक इन योजनाओं पर अमेरिका अमल नहीं कर सका, पर 1996 में इस पर नए सिरे से सुगबुगाहट हुई। बाद में कई वजह से क्लिंटन प्रशासन ने योजना को ठंडे बस्ते में डाला। हालांकि साल 2008 में बुश प्रशासन ने अंतरिक्ष में हथियारों की तैनाती पर रिपोर्ट में कहा कि इससे अमेरिका अपनी सैन्य क्षमता बढ़ा सकता है व दूसरे देशों को अंतरिक्ष में बढ़त से रोक सकता है। इसी तरह ट्रंप प्रशासन को महसूस हुआ था कि रूस-चीन की इस मामले में बढ़त के मद्देनजर स्टार वॉर की योजनाओं को फिर से देखा जाए और अंतरिक्ष से युद्ध की संभावनाएं टटोली जाएं।
सैन्य गतिविधियों पर नजर
अभी तक इस तकनीक से लैस सभी देश दावा कर रहे हैं कि अंतरिक्ष में हथियारों के परीक्षण का उनका उद्देश्य अपनी सुरक्षा को पुख्ता करना है। वजह, ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था अंतरिक्ष में तैनात कामकाजी उपग्रहों पर टिकी है जो मौसम पर नजर रखते हैं, इंटरनेट व दूरसंचार कार्यों को संपन्न कराते हैं, दुश्मन देशों की गतिविधियों की निगहबानी करते हैं और पृथ्वी के अन्वेषण का वह काम करते हैं जिनसे डाटा, और विकास में मदद मिलती है। यदि कोई देश किसी मुल्क को ठप करना चाहे तो उसके उपग्रहों को निशाना बनाकर कर सकता है। यदि कोई देश अपनी सैटेलाइट्स की सुरक्षा के उपाय के तौर पर एंटी-सैटेलाइट मिसाइलों का परीक्षण करता है, तो उससे भी अंतरिक्ष जंग का खतरा पैदा होता है। इधर, जब से भारत-पाक सैन्य संघर्ष शुरू हुआ है, दबी जुबान में कहा जा रहा कि भारत अपने उपग्रहों की बदौलत पाकिस्तान के आतंकी व सैन्य प्रतिष्ठानों और गतिविधियों की सूक्ष्म जानकारी हासिल कर रहा है जिससे उसके प्रहार सटीक हैं।
दुश्मन से निपटने के नए तरीके
हालांकि अंतरिक्षीय जंग अभी दूर की कौड़ी लगती है, लेकिन जो देश इस पर काम कर रहे हैं, वे कई तरह की प्रणालियां अपना सकते हैं। जैसे, अगर अमेरिका पर कोई शत्रु देश आक्रमण करता है, तो अंतरिक्ष स्थित अमेरिकी सैन्य उपग्रह- कॉमन एयरो व्हीकल से 3000 नॉटिकल मील की गति से एक हजार पाउंड तक के वजन वाला बम सटीक निशाने पर दागा जा सकेगा। लेज़र का प्रहार : अंतरिक्ष में तैनात उपकरणों की सहायता से लेज़र किरणों से हमला बोलना अमेरिका-ब्रिटेन और भारत समेत कई देशों को लुभा रहा है। इस तरह की प्रणाली को इवोल्यूशनरी एयर एंड स्पेस ग्लोबल लेज़र इंगेज़मेंट (ईगल) कहा गया है। इससे हवा से हवा में, सतह से सतह पर या अंतरिक्ष स्थित लेज़र प्रक्षेपक सिस्टम से धरती पर संहारक क्षमता वाली लेज़र किरणें फेंकी जा सकती हैं और दुश्मन के ठिकानों को नष्ट किया जा सकता है।
सैटेलाइटों की हैकिंग : भविष्य में जैसे स्पेस वॉर की आशंका जताई जा रही है, उसमें एक तरीका है उपग्रहों (सैटेलाइट्स) को हैक करना। अमेरिका और चीन ऐसे तरीके आजमाते रहे हैं। सैटेलाइट हैकिंग की बात 2013 में तब साबित हुई, जब चीनी हैकरों ने हैकिंग से अमेरिकी सैटेलाइट को जाम कर दिया। ईरान ने बीबीसी टीवी के सैटेलाइट को हैक कर एक कार्यक्रम का प्रसारण रोक दिया था। ऐसे में यूरोपीय स्पेस एजेंसी- ईएसए क्वांटम इनक्रिप्शन तकनीक पर काम कर रही है जो सैटेलाइट हैकिंग रोक सकती है।
आत्मघाती युद्ध उपग्रह : अंतरिक्ष विशेषज्ञ मानते हैं कि रूस, चीन और अमेरिका जैसे देश ऐसे युद्धक सैटेलाइट तैयार कर रहे हैं, जिन्हें हमलावर सैनिक की तरह स्पेस में भेजा जा सकता है और वे वहां शत्रु देशों के सैटेलाइटों को हथियारों से तबाह कर सकते हैं। दावा किया जाता है कि 1960 में रूस ने एक लड़ाकू सैटेलाइट का परीक्षण किया था, जो दूसरे उपग्रह के पास जाकर खुद को विस्फोट से उड़ा लेता था व दूसरा सैटेलाइट भी तबाह हो जाता है। चीन ने 2007 में और रूस ने एक बार फिर 2015 में ऐसे लड़ाकू सैटेलाइटों का परीक्षण किया। दावा है, 1970 में अमेरिका के कैलिफोर्निया में ऐसी ही परियोजना पर काम किया था। हालांकि ऐसे दावे कोई देश स्वीकारता नहीं।भारत की तैयारियां : भारत भी भविष्य के युद्धों की तैयारियां कर रहा है। भारतीय सेना को अगले दशक में हजारों ड्रोन्स की जरूरत होगी। इनमें लड़ाकू और सबमरीन से लॉन्च किए जाने वाले रिमोट संचालित एयरक्राफ्ट भी शामिल किए जा सकते हैं। इसके अलावा शक्तिशाली माइक्रोवेव एनर्जी लेजर किरणों से संचालित होने वाली डायरेक्टेड एनर्जी वेपंस की जरूरत होगी, जिनके जरिए दुश्मन के ठिकानों व सैटलाइटों को तबाह कर सकें। इस पर काम शुरू हो चुका है। सात साल पहले रक्षा मंत्रालय के नए ‘टेक्नॉलोजी पर्सपेक्टिव ऐंड कैपेबिलिटी रोडमैप-2018’ में इस तरह की सैन्य क्षमताओं का जिक्र किया गया था। दावा है कि यह रोडमैप इंडस्ट्री को योजना बनाने या तकनीकी विकास और उत्पादन का प्रबंध करने में मदद दे सकता है। हालांकि इसमें भी ज्यादा ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को महत्व देना होगा, यानी ये हथियार और तकनीकें स्वदेशी ढंग से विकसित करनी होंगी। (सभी इमेज एआई से निर्मित) -लेखक मीडिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।