अध्यात्म और प्रकृति की गहराई का संयोग बिंदु
जानकी केवल एक राजकुमारी या पत्नी नहीं, बल्कि प्रकृति, अध्यात्म और नारी शक्ति का जीवंत स्वरूप हैं। उनका जीवन त्याग, धैर्य, प्रेम और तपस्या की अद्वितीय मिसाल है। सुकोमल तन में अद्भुत आत्मबल समेटे सीता हर युग में नारीत्व की दिव्यता और गरिमा की प्रतीक बनी रहती हैं।
उमेश चतुर्वेदी
जनक सुता जानकी की जब भी चर्चा होती है, उनसे जुड़ा जब भी कोई विषय सामने आता है, रामचरितमानस की ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं :-
पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा।
सियं न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउं।
दीप बाति नहिं टारन कहऊं॥
वन गमन के ठीक पहले राम आशीर्वचन के लिए माताओं के पास जा रहे हैं... कौशल्या की आंखों के कोर भीगे हैं... इसलिए नहीं कि उनका प्रिय पुत्र वन जा रहा है, बल्कि उनकी प्यारी दुहिता, बहू जानकी भी वनगमन पथ का पाथेय बनने जा रही है। यह प्रसंग उसी दुलारी सीता को लेकर है, जिसमें कौशल्या राम से कहती हैं—
सीता ने पलंग, गोद और हिंडोले को छोड़कर कभी कठोर पृथ्वी पर पैर नहीं रखा है... मैं संजीवनी जड़ी की तरह सदा इसकी रखवाली करती रही हूं... यहां तक कि इसे दीया की बत्ती तक हटाने को नहीं कहा है... सीता इतनी नाजुक हैं, इतनी कोमल हैं... अयोध्या के राजमहल की ऐसी दुलारी हैं, जिन्हें रूई की बत्ती तक उठाने-छूने नहीं दिया जाता रहा। ऐसी सीता वन गमन की राह पर हैं... कौशल्या को चिंता इस बात की है कि इतनी सुकुमार जानकी के कोमल पांव कठोर अवनि पर कैसे पड़ेंगे? धरती की कठोरता, उसकी ठंड-गर्म तासीर को वे कैसे बर्दाश्त करेंगी।
अपनी बहू के बारे में सास कौशल्या के ये वचन आदर्श भाव हैं... राम का समूचा जीवन आदर्श ही है... मैथिलीशरण गुप्त अपनी रचना ‘यशोधरा’ में कहते हैं :-
राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है॥
राम का चरित्र मनुष्यत्व का चरम है... कह सकते हैं कि उनका जीवन नरत्व का दीपोमय तेज स्तंभ है... इसी दीप स्तंभ का सहज और सहयोगी चरित्र सीता हैं... विवाह के बाद हर वक्त राम के साथ दिखती हैं... चाहती तो वह अयोध्या के मणिमय राजमहल में सुखपूर्वक रह सकती थीं... लेकिन पति के साथ कंटकाकीर्ण राह पर चलना चुना। चाहती तो जनकपुर के अपने पिता के राजभवन का रुख कर सकती थीं... लेकिन उन्हें यह सुख गवारा नहीं था। कवितावली में गोस्वामी तुलसीदास ने वन गमन के लिए निकली सीता का जो चित्र खींचा है, वह बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है...
पुर तें निकसी रघुबीर-वधू,
धरि धीर दए मग में डग द्वैं।
झलकीं भरि भाल कनी जल की,
पट सूखि गए मधुराधर वै।
फिर बुझति हैं, चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौं कित ह्वै?
तिय की लखि आतुरता पिय की अंखियां अति चारु चलीं जल च्वै॥
अयोध्या से राम, सीता और लक्ष्मण निकल चुके हैं... शृंगवेरपुर से आगे की उनकी यात्रा शुरू हो रही है... राम, लक्ष्मण और सीता धीरज के साथ शृंगवेरपुर से दो कदम ही चलते हैं कि सीता के माथे पर पसीने की बूंदें झलकने लगती हैं... उनके सुन्दर और सुकुमार होंठ थकान के कारण सूख जाते हैं... इसके बाद सीता राम से पूछती हैं, अभी उन लोगों को और कितनी दूर चलना है? कितनी दूर बाद पत्तों की कुटी बनाकर वे रहेंगे? अन्तर्यामी राम, सीता की व्याकुलता का कारण समझ जाते हैं... थक चुकीं सीता अब विश्राम चाहती हैं... राजमहल की रहवासी की ऐसी दशा देख राम के सुन्दर नेत्रों से आंसू टपकने लगते हैं।
लेकिन क्या सीता सचमुच इतनी ही सुकुमार हैं... सीता अगर इतनी सुकुमार होतीं तो फिर बालपन में शिवजी के पिनाक धनुष को वे खिलौने की तरह कैसे उठा लेतीं। उस धनुष को, जिसे बड़े से बड़े महाबली हिला भी नहीं पाए थे। ऐसे संदर्भों को देखें तो जानकी के चरित्र के भी कई आयाम दिखते हैं। सीता का एक और रूप दिखता है, अतीव मेधा, धैर्य और शौर्य की धनी सीता।
श्रीराम पुरुष हैं तो सहज संभाव्य है कि सीता प्रकृति हैं... श्रीराम आराध्य हैं तो सीता भक्ति हैं... वह अध्यात्म की भी प्रतीक हैं... उनकी भक्ति शक्ति नहीं होती... तो क्या वह प्रतापी और मायावी रावण के सामने टिक पातीं... सीता की भक्ति की शक्ति ही है कि रावण की खोज में, उससे लड़ाई के वक्त हर पल वे अपने कर्तव्य पथ पर टिके रहते हैं... और उन तक पराक्रम के दम पर अपनी पहुंच बना लेते हैं।
सीता और राम प्रकृति के अनन्य प्रेमी हैं। सीता का हरण हो चुका है। राम और लक्ष्मण वन-वन भटकते हुए उन्हें ढूंढ़ रहे हैं। सीता के नहीं मिलने पर उनका मन विषाद और दुख से भर उठता है। राह में दिखने वाले पेड़-पौधों, पशुओं, पक्षियों और कीटों तक से सीता का हाल पूछते चलते हैं :-
हे खग मृग, हे मधुकर श्रेनी।
देखि तुम सीता मृगनयनी॥
हे पक्षियों, ऐ मृग, हे भंवरे, हे पर्वत शृंखलाएं... क्या तुमने हिरणों जैसी उत्सुक और चौकन्नी नयनों वाली सीता को देखा है?
मिथिला में जो रामलीला होती है। उसमें किशोरी और युवा जानकी के प्रकृति प्रेम को गहराई से दिखाया जाता है। मिथिला में प्रकृति प्रेमी सीता किशोरी जी हैं। मिथिला की किशोरी जी का प्रकृति प्रेम उनके उछाह और आशावादी भावी जीवन का प्रतीक है लेकिन अयोध्या की बहू बनकर पहुंची सीता का प्रकृति प्रेम कंटकाकीर्ण राहों का प्रतीक है जिसमें संघर्ष है, हरण है, दुखों का पहाड़ है। इसलिए मिथिला अपनी किशोरी जी को दिल से याद करता है। जीवन के हर मोड़ पर, अपनी माटी के हर कण में याद करता है लेकिन कंटकाकीर्ण पथ की पाथेय अयोध्या की बहू सीता के दर्द को याद करने से बचता है। मिथिला को अपनी किशोरी जी से अथाह प्यार है।
जानकी को जब भी इन संदर्भों में देखते हैं तो हमारे सामने उनके कई रूप प्रगट होते हैं। हमें तब पता चलता है कि जानकी हाड़-मांस की देह वाली आम नारी नहीं हैं, बल्कि प्रकृति और अध्यात्म के गहन मेल का दिव्य प्रतीक हैं। लंका की सीता को धैर्य को देखिए। विद्वान गण मानते हैं कि सीता प्रकृति ही नहीं, अध्यात्म का भी प्रतीक हैं... जानकी वह संयोग बिंदु हैं, जहां अध्यात्म और प्रकृति आपस में गहराई से जुड़ जाते हैं जिन्हें पूर्णता मिलती है राम से... प्रकृति के पुरुष राम से। जानकी प्रकृति से जुड़ी हैं और उन्होंने प्रकृति से कई चीजें सीखीं हैं। ज्ञान परंपरा बताती है कि अध्यात्म ही व्यक्ति को प्रकृति से अंतरतम तक जुड़ने में मददगार होता है और अंतरतम से यह जुड़ना ही आत्म से जुड़ना होता है। प्रकृति और अध्यात्म का यह मेल व्यक्ति को जीवन ही नहीं, सृष्टि के प्रति बेहतर दृष्टिकोण प्रदान करता है। जानकी इस ज्ञान परंपरा की भी प्रतीक हैं और श्रीराम इस परंपरा के गहन सहयोगी।