अतार्किक हस्तक्षेप से सिमटती शैक्षणिक आजादी
किसी भी समाज में अकादमिक-बौद्धिक क्षेत्र में स्वतंत्र विचार अभिव्यक्ति व असहमति के स्वर पर अंकुश की कोशिशें चिंताजनक ही कही जाएंगी। यह स्वस्थ समाज का संकेत नहीं। जिस तरह एक प्रोफेसर को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के संदर्भ में अपनी कुछ महीन और गूढ़ अर्थ वाली टिप्पणियों के चलते राष्ट्रवाद, युद्ध, लैंगिकता और राजनीति के विषैले घालमेल से गुजरना पड़ा, उस पर विचार कर चिंताएं और गहरी हो जाती हैं।
अविजित पाठक
इन दिनों जब भी मैं अपने अकादमिक जीवन पर नज़र दौड़ाता हूं, तो मुझे लगता है कि मैं बेहद भाग्यशाली रहा। तीन दशकों से अधिक समय तक मैंने पढ़ाया, व्याख्यान दिए, सेमिनारों में वक्ता रहा और संस्कृति, राजनीति, समाज एवं शिक्षा पर लिखा। किसी की 'भावनाओं' को चोट नहीं पहुंचाई; इस बीच मुझ पर कोई एफआईआर दायर नहीं हुई; और इन सबसे ऊपर, न्यायपालिका में से किसी ने भी मुझे सामग्री अथवा लेखन शैली को लेकर कोई चेतावनी नहीं दी। बेशक, हर कोई मेरे वैश्विक नज़रिए से सहमत नहीं था। तीव्र मतभेद, तर्क और तर्क-वितर्क होते रहे। फिर भी, दिन ढले विश्वविद्यालय के कैफेटेरिया में वामपंथियों, दक्षिणपंथियों, राष्ट्रवादियों, उत्तर आधुनिकतावादियों, अंबेडकरवादियों और नारीवादियों के साथ सहजता से बैठकर संवाद करता रहा, हंसी-ठिठोली, चुटकुलेबाजी और लेखन एवं किताबों पर विचार साझा करता रहा। सही मायने में, मैंने अपनी स्वतंत्रता का भरपूर आनंद लिया क्योंकि अपने विरोधियों के विचारों की स्वतंत्रता का भी हामी हूं।
हालांकि, इस बदलते समय में, जैसा कि अब मैं कुछ पहलुओं को देखता हूं, मसलन, अली खान महमूदाबाद- अशोका विश्वविद्यालय के इस एक युवा प्रोफेसर को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के संदर्भ में अपनी कुछ महीन और गूढ़ अर्थ वाली टिप्पणियों की एवज में जिस तरह राष्ट्रवाद, युद्ध, लैंगिकता और राजनीति के विषैले घालमेल से गुजरना पड़ा,उससे मेरी कंपकंपी छूटने लगती है...जी हां, इस युवा प्रोफेसर को गिरफ्तार किया गया; और जब उन्हें जमानत दी गई, तब भी माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश यह याद दिलाना नहीं भूले कि उन्हें इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर टिप्पणी करते वक्त सतर्क रहना चाहिए था। क्या यह करके हम तेजी से विषाक्त माहौल का सामान्यीकरण नहीं कर रहे, जिसमें वैचारिक मतभेदों पर संदेह किया जाए, असंतुष्ट आवाज़ों का अपराधीकरण किया जाए, और शैक्षणिक स्वतंत्रता के विचार को हतोत्साहित किया जाए? क्या यह उस युग की शुरुआत है कि हमारे शिक्षकों, प्रोफेसरों और सार्वजनिक बुद्धिजीवियों को कक्षा में आने से पहले इस पर कानूनी सलाह या मार्गदर्शन लेने की आवश्यकता पड़े कि क्या बोलना या लिखना है?
हमें हमारे अकादमिक/बौद्धिक स्थान को घेरते जा रहे सर्व-व्यापक भय पर दो कारणों से चिंता करने की जरूरत है। पहला, यह एक बीमार समाज बनने को इंगित करता है - एक ऐसा समाज जो अपनी भौतिक समृद्धि के बावजूद, हंसी-मजाक, मखौल का मजा लेना, मीमांसीय बहुलवाद की स्वीकार्यता, वाद-विवाद, तार्किक बहसों और मतभेदों की अनिवार्यता को स्वीकार करने की क्षमता खोना शुरू कर दे। वास्तव में, एक बीमार समाज वह होता है जो तमाम असहमति की आवाज़ों को नापसंद करता है : आवाजें जो यथास्थिति से असहज हों,और इस तरह वह राजनीतिक/बौद्धिक स्वतंत्रता और स्वतंत्रतावादी शिक्षा से प्राप्त मुक्तिदायिनी शक्ति से छुटकारा पाना चाहता है। एक बीमार समाज सत्तावादी होता है, और वह एक जीवंत शैक्षणिक/बौद्धिक संस्कृति पर संदेह करता है। इसलिए, कोई हैरानी नहीं कि डोनाल्ड ट्रम्प की तरह 'लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित' सत्तावादी व्यक्ति खुद को एक जीवंत शैक्षणिक संस्कृति और बौद्धिक परंपरा–जिसका प्रतीक हार्वर्ड विश्वविद्यालय है- के साथ बहुत असहज महसूस करता है। क्या पता ट्रम्प एक ऐसे रोल मॉडल बन जाएं, जिनका अनुसरण हमारे कुछ राजनीतिक आका करना चाहें।
दूसरा, शैक्षणिक/बौद्धिक स्वतंत्रता की अनुपस्थिति किसी राष्ट्र की प्रगति को गंभीर नुकसान पहुंचाती है। यह वह समय होता है जब हम मानने लगें कि विकास और प्रगति के लिए आर्थिक उत्पादकता, सैन्य शक्ति और तकनीकी नवाचार के आंकड़ों से परे कुछ नहीं है। जबकि हमारे मूल्य, सामूहिक आकांक्षाएं और जीवित रहने के तरीके रचनात्मक रूप से महीन एवं गहन सोच, नूतन विचार और बौद्धिक स्वतंत्रता के कारण एक क्रांतिकारी परिवर्तन से गुजरकर क्रमिक विकास करते हैं। मसलन, मार्क्सवाद में निहित एकदम अभिनव और क्रांतिकारी विचार, मनोविश्लेषण, लैंगिक अध्ययन और आलोचनात्मक विचारों से हमने एक नई किस्म की संवेदनशीलता पाई है, जिसने हमें दमनकारी, वर्चस्ववादी, शोषणकारी, पितृसत्तात्मक अधीनता और युद्ध की मानसिकता वाली विचारधाराओं से सवाल करने के काबिल बनाया, और जो आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय और एक लोकतांत्रिक समतावादी एवं समाजवादी शांतिपूर्ण विश्व का सृजन करने का प्रयास करती है। हालांकि, अगर हम तमाम क्रांतिकारी/असहमति की आवाज़ों पर संदेह करने लगें और अपने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में मुक्त परीक्षण की भावना को नष्ट कर देंगे, तब हमारे सामाजिक/सांस्कृतिक/राजनीतिक क्षय को कोई भी नहीं रोक पाएगा, भले ही हम युद्ध में अपने ‘दुश्मनों’ को पराजित करने में सक्षम हों, अपनी मजबूत सैन्य शक्ति एवं सामर्थ्य का भव्य प्रदर्शन कर लें या अपने आर्थिक विकास पर कितना भी गर्व महसूस कर लें। जिस तरह से हम अकादमिक स्वतंत्रता में लगातार गिरावट देख रहे हैं,निश्चित रूप से यह अच्छी स्थिति नहीं, तभी तो आज भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतता में 179 देशों में से 156वें स्थान पर है।
एक स्थिति की कल्पना करें। भले ही आज भारत 4.3 ट्रिलियन डॉलर जीडीपी के साथ दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, एक प्रोफेसर अपने छात्रों से इस सफलता गाथा में बहने को न कहे। इसके बजाय, वह चाहेगा कि उसके छात्र गहराई में उतरकर, देश में व्याप्त सामाजिक/आर्थिक असमानता की कठोर वास्तविकताओं को परखें, और गंभीर रूप से जांच करें कि क्या इसमें गर्व महसूस करने की कोई वजह है। कल्पना कीजिए कि वह अपने छात्रों से यह याद रखने के लिए कहे कि चोटी के अमीर 10 फीसदी भारतीयों के हाथ में देश के कुल धन का 80 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि निचले वर्ग के 50 प्रतिशत के पास केवल 6.4 फीसदी भाग है। वैश्विक मानव समृद्धि सूची के अनुसार, 284 भारतीय खरबपतियों की कुल संपत्ति देश के जीडीपी के लगभग एक तिहाई जितनी है। वह अपने छात्रों से यह सोचने के लिए कहे कि क्या यही कारण है कि, जैसा कि 2024 वैश्विक भुखमरी सूंचकाक बताता है, 127 देशों में भारत 105वें स्थान पर है। और यह तर्क दे कि न्यायोचित आय वितरण के बगैर गरीबों, बेघरों और यहां तक कि संघर्षरत मध्यम वर्ग के लिए विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के कुछ भी मायने नहीं हैं। ऐसा अध्यापक एक षड्यंत्रकारी या राष्ट्र का दुश्मन नहीं है। इसकी बजाय, यह देश के प्रति उसका प्यार है, या सत्य के प्रति उसकी प्रतिबद्धता है, जो उसे अपने छात्रों को सजग बने रहने के लिए प्रेरित करती है, और वह उन्हें छद्म राष्ट्रवादी उत्साह में बहने नहीं देता। हालांकि, जैसा कि माहौल इसके ठीक उलट बना दिया गया है। ऐसे प्रोफेसर पर 'राष्ट्र विरोधी' का ठप्पा लगा दिया जाएगा, और अंततः गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाएगा।
यह दुखद है कि इन दिनों विश्वविद्यालय प्रशासन शायद ही कभी अकादमिक समुदाय की बौद्धिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आगे आया हो। इसके बजाय, हमारे कई कुलपति, जिनमें कुछ ‘परम उदारवादी’ निजी विश्वविद्यालयों के प्रशासक भी शामिल हैं, 'आधिकारिक' परिपाटी का पालन करने में सहज महसूस करते हैं। हालांकि, इन विपरीत परिस्थितियों में भी, जो लोग सही शिक्षण से प्यार करते हैं और मानते हैं कि आलोचनात्मक अभिव्यक्ति की भावना के बिना पढ़ाई निरर्थक है, उन्हें चुप्पी त्यागकर, बौद्धिक परिवेश की बहाली करने के लिए सामूहिक रूप से लड़ना होगा, जैसा कि रबींद्रनाथ टैगोर ने कहा था ः ‘मानस भय रहित और सिर ऊंचा बना रहे।’
लेखक समाज शास्त्री हैं।